सीएसडीएस के डयरेक्टर संजय कुमार ने इस लेख में बताने की कोशिश की है कि धर्मनिरपेक्षता के बजाय लालू-नीतीश ओबीसी गोलबंदी पर काम करें तो भाजपा के मार्च को रोक सकते हैं.
ऐसा लगताहै कि बिहार की राजनीति ने हाल के वर्षों में पूरी तरह उलटा रुख ले लिया है। एक-दूसरे पर हमले का कोई मौका चूकने वाले और हाल के वर्षों में एक-दूसरे के खिलाफ कई चुनाव लड़ने वाले नीतीश कुमार और लालू यादव ने भाजपा के खिलाफ हाथ मिला लिए हैं। 1980 और 1990 के शुरुआती वर्षों में जो राजनीतिक गठबंधन कांग्रेस विरोध के आधार पर बना था, अब भाजपा विरोध में बनता नजर रहा है। दोनों नेताओं ने इस माह 10 विधानसभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव लड़ने के लिए (कांग्रेस के साथ) गठबंधन बनाया है। अभी हाल की बात है कि राज्यसभा चुनाव के लिए लालू यादव ने नीतीश कुमार का समर्थन किया था। इसी कारण जद (यू) के प्रत्याशी पवन वर्मा और गुलाम रसूल बलयावी राज्यसभा के लिए चुने गए।
जहां आलोचक इसे अवसरवादी गठबंधन कह रहे हैं, वहीं दोनों नेता इसे धर्मनिरपेक्ष ताकतों का ऐसा गठबंधन बता रहे हैं, जो राज्य में सांप्रदायिक ताकतों की बढ़त को रोकने के लिए बनाया गया है। अब यह तो चुनाव नतीजों से ही पता चलेगा कि यह गठबंधन राज्य में भाजपा के उदय पर लगाम लगा पाएगा या नहीं, लेकिन क्या इससे कम से कम बिहार में मंडल-2 की शुरुआत के संकेत मिलते हैं? क्या हम इसी प्रकार का ट्रेंड पड़ोसी उत्तरप्रदेश में उभरता देख सकते हैं, जहां हाल ही के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने सारे विपक्षी दलों का सफाया कर दिया था?
धर्मनिपरेक्षता या पिछड़ावाद?
यह सही है कि एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ने की तुलना में गठबंधन बनाने से राजद और जद (यू) की चुनावी संभावनाएं निश्चित ही बेहतर होगी। हालांकि, यदि नीतीश और लालू यदि यह सोच रहे हों कि इससे बिहार में मंडल-2 की शुरुआत होगी तो वे गलती करेंगे। मंडल आंदोलन के तुरंत बाद 1990 के दशक के मध्य में ओबीसी लामबंदी सफल रही थी, क्योंकि बिहार के सामाजिक राजनीतिक जीवन में उच्च वर्ग के प्रभुत्व के खिलाफ ओबीसी के बड़े तबके एकजुट हो गए थे। तीन प्रभावी जातियां यादव, कुर्मी और कोरी ने एकजुट होकर ओबीसी की लामबंदी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसका नतीजा जनता दल की चुनावी सफलता में हुआ, जिसे भारतीय राजनीति में मंडल क्रांति कहा गया।
किंतु अब चीजें उस मंडल क्रांति से आगे चली गई हैं। 1990 के दशक के मध्य में ओबीसी एकजुटता में दरारें नजर आने लगीं और मंडल लामबंदी के दो प्रमुख नेता नीतीश कुमार और लालू यादव अलग हो गए। नीतीश ने अपनी समता पार्टी (जो बाद में जनता दल (यू) कहलाई) गठित कर ली। नीतीश कुमार की नेतृत्व वाली पार्टी ने 1996 के लोकसभा चुनाव के बाद से भाजपा के साथ मिलकर गठबंधन बना लिया, जबकि लालू यादव की राष्ट्रीय जनता दल (राजद) कभी अकेले तो कभी दूसरे दलों के साथ मिलकर जद (यू)-भाजपा गठबंधन के खिलाफ चुनाव लड़ती रही। जहां नया गठबंधन ओबीसी मतदाताओं को नीतीश और लालू यादव के पक्ष में एकजुट करने में मददगार हो सकता है। निश्चित ही यह 2014 के लोकसभा चुनाव की तुलना में अधिक संख्या में होगा। हालांकि, इसके साथ ही यह कल्पना करना कठिन है कि यादव (राजद के मुख्य समर्थक) और कुर्मी कोरी (जद (यू) के मुख्य समर्थक), जिन्होंने हाल के वर्षों में एक-दूसरे के िखलाफ कई चुनाव लड़े हैं, वे सिर्फ भाजपा को हराने के नाम पर एक साथ आएंगे जैसे वे नब्बे के दशक में आए थे।
अड़चन
नीतीश और लालू के लिए ओबीसी के उन वर्गों को एकजुट करना और भी कठिन होगा, जिन्होंने हाल ही के वर्षों में भाजपा को बड़ी संख्या में अपने वोट दिए हैं। ऐसे ओबीसी वोटरों की भी बड़ी संख्या है। सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज की ओर से कराए गए सर्वे में पता चला था कि ओबीसी के निचले वर्गों के 58 फीसदी ने 2014 के चुनाव में भाजपा-लोकजनशक्ति पार्टी गठबंधन को वोट दिया था। ऐसे परिदृश्य में यह कल्पना करना कठिन है कि यह नया गठबंधन मंडल-2 का नया चरण शुरू करने का कारण बनेगा। हो सकता है कि अखिल भारतीय स्तर पर यह बात सही हो पर बिहार में तो ऐसा होने की बहुत कम संभावना है।
ओबीसी लामबंदी में दूसरी अड़चन औचित्य की है, जो इस नए गठबंधन के दोनों भागीदार बता रहे हैं। उनका कहना है कि यह ‘सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ धर्मनिरपेक्ष ताकतों का गठबंधन है’ मुझे संदेह है कि बिहार में ओबीसी लामबंदी के लिए यह वजह काम देगी। इससे निश्चय ही मुस्लिम वोट मजबूत होगा, जो वैसे भी आगामी चुनाव में इस नए गठबंधन के साथ थोक में जाने ही वाला है। फिर हाल के लोकसभा चुनाव में नीतीश लालू के खिलाफ ऊंची जातियों का जबर्दस्त ध्रुवीकरण देखा गया था।
बिहार की राजनीति में करीब दो दशकों के बाद ऊंची जातियों का प्रभुत्व लौटा है और ओबीसी लामबंदी के लिए वोटरों को सांप्रदायिक या धर्मनिरपेक्षता के मुद्दे पर वोट देने का आह्वान करने की बजाय इस प्रभुत्व को चुनौती देने की बाद ज्यादा प्रभावी होगी।
नीतीश-लालू गैर-पासवान दलितों (महादलित) को अपने पक्ष में जाति के आधार पर एकजुट करने की उम्मीद कर सकते हैं, क्योंकि 2014 के आम चुनाव में उनके वोट विभाजित थे। हालांकि, पासवान भाजपा के साथ होने से नया गठबंधन तो पासवानों को और ऊंची जातियों को अपने पक्ष में एकजुट कर सकता है। विधानसभा चुनाव में तो ऊंची जातियों का ध्रुवीकरण लोकसभा चुनाव की तुलना में और भी ज्यादा होगा। सवाल वही रहता है कि यदि मंडल-2 जैसी ओबीसी लामबंदी को लेकर संदेह है तो क्या नए गठबंधन के पक्ष में जो भी लामबंदी होती है क्या वह भाजपा का मार्च रोकने के लिए काफी होगा?
कोयरी, कुर्मी, यादव मुस्लिम गठबंधन
राजद, जद (यू) और कांग्रेस के गठबंधन का मतलब है तीन प्रभावी जातियों यादव, कुर्मी कोरी और मुस्लिमों का सामाजिक गठबंधन। यदि आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो वे कुल मतदाताओं का 40 फीसदी होते हैं। गठबंधन गैर-पासवान दलित और निम्न ओबीसी जातियों से भी वोट की उम्मीद कर सकता है। यह मिलाकर आंकड़ा 50 फीसदी हो जाता है। उससे कहीं ज्यादा जो द्विदलीय चुनाव में किसी दल और गठबंधन की चुनावी सफलता के लिए जरूरी है, किंतु क्या चुनावी गणित इतना सीधा है?
भाजपा ने अपने सहयोगी लोजपा और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के साथ 38.8 फीसदी वोट हासिल कर 40 में से 31 सीटें जीती थीं। राजद-कांग्रेस गठबंधन ने 7 सीटें जीतीं और उसे 29.8 फीसदी वोट मिले जबकि सत्तारूढ़ जद (यू) 15.8 फीसदी वोट हासिल कर केवल दो सीट ही हासिल कर सका। यह सही है कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा का समर्थन बढ़ा है, लेिकन यह भी सही है कि इसे जद (यू) और राजद के विभाजन का फायदा मिला है। लोकसभा की 40 में से 26 सीटों पर जद (यू), राजद और कांग्रेस गठबंधन का वोट प्रतिशत भाजपा, एलजेपी और आरएलएसपी गठबंध से ज्यादा है। यह सही है कि राजनीति में मुश्किल से ही दो और दो चार होते हैं, क्योंकि गठबंधन के दलों के वोट का जोड़ मुश्किल से ही गठबंधन के कुल वोट होते हैं।
अदर्स वॉयस के तहत हम अन्य मीडिया की रिपोर्ट हूबहू छापते हैं. यह आलेख दैनिक भास्कर से साभार