मीडिया में दलितों के साथ दलित समस्याएं भी गायब हैं. साथ ही वे अगर मीडिया में आ भी जाये तो करेंगे क्या?
एक बड़ा सवाल मौजूद है, जिस पर समग्र रूप से विचार करने की जरूरत है.मुख्य धारा की मीडिया को जनतांत्रिक कैसे बनाया जाये इस पर भी विमर्श की आवश्यकता है.
यू. पी प्ररस क्लब लखनउ में लेखक व पत्रकार संजय कुमार की किताब ‘मीडिया में दलित ढूंढते रह जाओगे’ के लोकार्पण के बाद वक्ताओं ने परिचर्चा में यह बातें कही. पुस्तक का लोकार्पण संयुक्त रूप से मानवाधिकार कार्यकर्ता व दलित चिंतक एस आर दारापुरी, आलोचक वीरेन्द्र यादव, प्रगतिशील महिला एसोसिएशन की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन, दलित चिंतक अरूण खोटे और जसम के संयोजक कौशल किशोर ने किया.
इसदौरान वीरेन्द्र यादव ने कहा कि मीडिया में मुकम्मल भारत की तस्वीर नही हैं, गांव नहीं है, हाशिये का समाज नहीं है. मीडिया में दलितों के साथ दलित समस्याएं भी अनुपस्थित है. आज समाज को समग्र नजरिये से देखने की जरूरत है. इन सबकी उपस्थिति के साथ, दलित समाज की आलोचना की जरूरत के लिए भी मीडिया में दलितों की आवश्यकता है.
वहीं अरूण खोटे ने कहा कि इतिहास में जायें तो दलित ही मीडिया के जनक रहे है. इसके बावजूद शिक्षा और संसाधनों से वंचित यह वर्ग अब मीडिया से गायब हो गया है. आज बात सिर्फ मीडिया में दलितों के प्रतिनिधित्व नहीं है, बल्कि दलितों के मुद्दों के लिए क्या यहां जगह है?
इस मौके पर एस आर दारापुरी ने कहा कि दलितों के साथ अब भी भेदभाव बरकरार है. लेकिन यह सब मीडिया में खबर नहीं बनते, क्योंकि मीडिया भी उसी द्विज वर्चस्व को बरकरार रखना चाहता है. उन्होंने कहा कि मीडिया में दलित नहीं है यह सच्चाई है तो सवाल यह है कि हम क्या करें. ऐसे में दलित मीडिया को आगे लाने की जरुरत है.
दूसरी ओर महिला एसोसिएशन की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ताहिरा हसन ने कहा कि राजनीति को समझते हुए दलितों और मुस्लमानों को एक साथ आगे आना होगा और लामबंद तरीके से लड़ाई लड़नी होगी. जसम के संयोजक कौशल किशोर ने कहा कि कहने को तो लोकतांत्रिक व्यवस्था है लेकिन समाजिक बराबरी आज भी दुर्लभ है.
पुस्तक के लेखक और आकाशवाणी पटना के समाचार संपादक संजय कुमार ने कहा कि मीडिया को लोकतंत्र का चैथा खंभा कहा जाता है परन्तु इसकी बनावट जातिवादी तथा दलित विरोधी है.
आंकड़े जो शर्मशार करें
दलित मीडिया से जुड़ना तो चाहते हैं, लेकिन उन्हें जान-बूझकर इससे दूर रखा जाता है. यदि कोई प्रतिभाशाली और योग्य दलित मीडिया में प्रवेश भी पा लेता है तो उसे शीर्ष तक पहुंचने नहीं दिया जाता, बल्कि उसे बाहर का रास्ता दिखाने के लगातार उपाय ढंढ़े जाते हैं.
राष्ट्रीय सर्वे के अनुसार मीडिया में कुल जनसंख्या में 8 प्रतिशत वाली ऊँची जातियों का मीडिया हास में 71 प्रतिशत शीर्ष पदों पर कब्जा है. इनमें 49 प्रतिशत ब्राह्मण, 14 प्रतिशत कायस्थ, वैश्य और राजपूत 7-7 प्रतिशत, खत्री-9, गैर द्विज उच्च जाति-2 और अन्य पिछड़ी जाति 4 प्रतिशत हैं. इनमें दलित कहीं नहीं दिखते.
श्री कुमार ने कहा कि राजनैतिक रूप से जागरूक बिहार की राजधानी पटना के मीडिया घरानों में काम करने वालों के भी सर्वे है. सर्वे के मुतबिक बिहार के मीडिया में सवर्णों का 87 प्रतिशत कब्जा है. इनमें ब्राह्मण 34, राजपूत-23, भूमिहार-14 और कायस्थ-16 प्रतिशत है. शेष 13 प्रतिशत में पिछड़ी जाति, अति पिछड़ी जातियों, मुसलमानों और दलितों की हिस्सेदारी है. इनमें सबसे कम लगभग 01 प्रतिशत दलित पत्रकार ही बिहार की मीडिया से जुड़े हैं. सरकारी मीडिया में लगभग 12 प्रतिशत दलित है.
जसम की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में नाटककार राजेश कुमार, अलग दुनिया के के.के.वत्स, कवि आलोचक चंद्रेश्वर सहित कई चर्चित पत्रकार-साहित्यकार उपस्थित थे.