लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण के बाद स्पष्ट हो गया है कि भारतीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने का काम कुछ जातियों का रह गया है, बाकी जातियां सिर्फ वोट गिनने के लिए हैं। राष्ट्रवाद से लेकर समाजवाद तक का नारा देने वाले दोनों गठबंधन टिकट बांटने क्षेत्र की जातीय बनावट और उम्मीदवारों की जाति का खास ख्याल रखा है। एनडीए और महागठबंधन दोनों ने यादव व राजपूत जाति को महत्व दिया। एनडीए में राजपूत और महागठबंधन में यादव का बम-बम रहा। मुसलमान को महागठबंधन में महत्व मिला तो एनडीए ने अनदेखी भी की। कोईरी को दोनों गठबंधनों ने तवज्जो दी है। अनुसूचित जाति में रविदास और पासवान की जय-जय रही। टिकट वितरण के दौर में टिकट के लिए पैसे लेने के भी आरोप लगे।
लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी है। चरणवार नामांकन, नाम वापसी और प्रचार अभियान शुरू हो गया है। 11 अप्रैल को पहले चरण के लिए 4 लोकसभा क्षेत्रों में मतदान होगा। अंतिम चरण का मतदान 19 मई को होगा और मतगणना 23 मई को होगी। इस बीच दोनों प्रमुख गठबंधनों एनडीए और महागठबंधन ने अपने-अपने उम्मीदवारों की सूची जारी कर दी है। एनडीए में तीन दल शामिल हैं तो महागठबंधन में पांच दल शामिल हैं। एक दल के रूप में सबसे अधिक 19 उम्मीदवार राजद के हैं।
नीति, सिद्धांत और नैतिकता की दुकान सजाने वाली पार्टियां ‘प्रोडक्ट कास्ट’ लेकर बाजार में बैठ गयी हैं। हमने पहली बार 2010 के विधान सभा चुनाव के पूर्व तत्कालीन विधायकों की विधान सभा क्षेत्र और जातिवार सूची प्रकाशित की थी। इसके पहले कुछ जातियों को छोड़कर वर्गीय आधार पर जातियों का आकलन किया जाता था। हमने उसकी दिशा बदली और राजनीति में जाति को अपना विषय बनाया। शुरू में कुछ लोगों को यह आपत्तिजनक भी लगता था, लेकिन हम अपनी दिशा में बढ़ते गये और आज समाचार माध्यमों में राजनीति का सबसे बड़ा विषय जाति हो गयी। आज बिहार में जाति के बिना राजनीति की कल्पना नहीं कर सकते हैं। इसका श्रेय हम उठा लें तो किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
लोकसभा चुनाव के टिकट वितरण में जाति और जीतने की ताकत को सबसे बड़ा आधार माना गया। यादव, राजपूत, मुसलमान और कोईरी ऐसी जाति हैं कि बिहार के सभी इलाकों में पायी जाती है। इनकी संख्या भी काफी है। यही कारण है कि दोनों प्रमुख गठबंधनों के 80 उम्मीदवारों में से 40 अकेले इन्हीं चार जातियों के हैं।
बिहार की राजनीति में कायस्थ और ब्राह्मण हाशिए की जाति हो गयी हैं। टिकट वितरण में यह दर्द भी छलका। भाजपा ने मात्र दो ब्राह्मण को टिकट दिया। कायस्थों की राजनीति पटना साहिब से आगे बमुश्किल बढ़ रही है। भाजपा से बेटिकट हुए शत्रुघ्न सिन्हा को कांग्रेस का आश्रय मिल गया है, लेकिन केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को ‘भरी जवानी’ में चुनाव में धकेल दिया गया। राज्यसभा में उनका कार्यकाल अभी 5 साल से अधिक बाकी है। इसके बावजूद उन्हें भाजपा ने पटना साहिब के मैदान में उतार दिया है। इसकी वजह है कि भाजपा के पास कोई दूसरा कायस्थ नेता नहीं है, जो शत्रुघ्न सिन्हा का मुकाबला कर सके। पासवान की राजनीति रामविलास पासवान के परिवार से आगे नहीं बढ़ पायी। उनके दो भाई और पुत्र चुनाव मैदान में हैं। दलित राजनीति में पासवान और रविदास की चांदी है।
अतिपिछड़ी जातियों को साधने की कोशिश दोनों पक्षों ने की है। एनडीए में 6 और महागठबंधन में 5 अतिपिछड़ों को टिकट दिया है। बिहार में कुछ सीट कुछ जातियों की मान ली गयी हैं। टिकट वितरण में भी इसका ख्याल रखा गया। जहानाबाद और औरंगाबाद में पहली बार मजबूती के साथ अतिपिछड़ी जाति का प्रयोग किया जा रहा है। अब तक जहानाबाद यादव बनाम भूमिहार और औरंगाबाद राजपूत बनाम राजपूत का अखाड़ा माना जा रहा था। इस बार इस ट्रेंड को तोड़ने का प्रयास लालू यादव व नीतीश कुमार ने किया है। इस मामले में खगडि़या भी नया प्रयोग भूमि मानी जा सकती है, जहां से लालू यादव ने मल्लाह मुकेश सहनी को महागठबंधन का उम्मीदवार बनाया है। भागलपुर, सुपौल, झंझारपुर, अररिया, मुजफ्फरपुर आदि क्षेत्रों में पहले भी अतिपिछड़ा की राजनीति प्रभावी रही है।
बिहार में राजनीति और जाति एक-दूसरे के पर्याय बन गये हैं। वैसी स्थिति में दोनों का भेद मिटा पाना मुश्किल होता जा रहा है। मतदाताओं को भी इन्हीं जातियों में से अपना सांसद चुनना पड़ता है। इसके अलावा कोई विकल्प भी नहीं है और न इन परिस्थितियों का विकल्प दिखता है। https://www.facebook.com/kumarbypatna