पटना,अनेक सद्गुणों से विभूषित साहित्यकार डा शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव विद्वता, विनम्रता और रचनात्मकता के प्रतिमान पुरुष थे। एक व्यक्ति में इतनी बहुमुखी और व्यापक प्रतिभा हो सकती है, यह सहसा विश्वास नही होता।
साहित्य, शिक्षा, समाजसेवा,रचनात्मक राजनीति और सामाजिक सरोकारों के प्रत्येक सारस्वत क्षेत्र से न केवल जुड़े, बल्कि नेतृत्व करने वाले एक अनुकरणीय व्यक्तित्व थे शैलेंद्र जी। अनेक विश्वविद्यालयों में अध्यापन, तिलकामाँझी विश्वविद्यालय के कुलपति, अंतर्विश्वविद्यालय बोर्ड के अध्यक्ष, विधायक और सांसद के रूप में तथा एक हीं नही अनेक संस्थाओं के माध्यम से उनके द्वारा किए गए कार्यों का मूल्यांकन करने पर एक चमत्कृत करने वाली छवि सामने दिखती है। वे ‘विद्या ददाति विनयम‘ के साक्षात उदाहरण थे।
यह बातें आज यहाँ बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन में डा श्रीवास्तव की ८२वीं जयंती पर आयोजित समारोह और कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, उनके सुंदर और प्रभावशाली व्यक्तित्व के समान हीं उनकी वाणी, व्यवहार और व्याख्यान–कौशल भी मोहक थे। वे अपने मृदु और सरल व्यवहार से सरलता से सबको अपना बना लेते थे। इन्हीं सदगुणों के कारण उन्हें भारत सरकार ने पद्म–सम्मान से विभूषित किया। अनेक प्रकार की व्यस्तताओं के बीच भी उन्होंने लेखन के लिए समय निकाले और अपनी दर्जन भर प्रकाशित पुस्तकों से हिंदी का भंडार भरे। वे एक अधिकारी निबंधकार, कवि और जीवनीकार थे।
समारोह का उद्घाटन करते हुए, भूपेन्द्र नारायण मंडल विश्वविद्यालय, मधेपुरा के पूर्व कुलपति प्रो अमरनाथ सिन्हा ने कहा कि, शैलेंद्र जी एक बड़े साहित्यकार, बड़े नेता और संस्कृति के बड़े पोषक और बड़े दिल वाले मित्र थे। पटना विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति आचार्य देवेंद्र नाथ शर्मा, जो बाद में साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी हुए, ने मुझ से कहा था कि ‘तुम बड़े सौभाग्य शाली हो कि, तुम्हें शैलेंद्र नाथ श्रीवास्तव जैसा मित्र मिला है।” उन्होंने कहा कि वे अत्यंत सामर्थ्यवान कवि थे। उनके साहित्य पर लिखते हुए महान साहित्यसेवी प्रभाकर माचवे ने कहा था कि, शैलेंद्र जी नौ रसों के हीं नहीं दसवें रस के भी समर्थ साहित्यकार हैं, जो व्यर्थ के संदर्भों को भी रसमय बना देते हैं।
मगध विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति मेजर बलबीर सिंह ‘भसीन‘, सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्र नाथ गुप्त, डा शंकर प्रसाद, अमियनाथ चटर्जी तथा डा श्रीवास्तव के पुत्र पारिजात सौरभ ने भी शैलेंद्र जी के गुणों का स्मरण करते हुए उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की।
गद्यकारों ने जहाँ अपने उद्गार गद्य में व्यक्त किए, वहीं कवियों ने उन्हें गीतों में याद किया। वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश‘ ने कहा कि, “थे भँवर में हम, खड़े जो कुछ किनारे लोग थे/ वो तमाशा देखने वाले हमारे लोग थे/ सब के सब थे भेस बदले, फिर भी पहचाने गए/ आईने के सामने ‘करुणेश‘ सारे लोग थे“।
कवि भगवती प्रसाद द्विवेदी ने नव–संवत्सर को समर्पित गीत पढ़ते हुए कहा कि, “ सपने भरते रहे कुलाँचे नए साल में/ मौन नयन की भाषा को पहचान मिले अब/ बिटिया की आशा को नी उड़ान मिले अब/ पथराई आँखों को बाँचे नए साल में“/ कवयित्री डा अर्चना त्रिपाठी ने रिश्तों की नाजुकी को इस तरह से शब्द दिए कि, “ रिश्तों की कड़वाहट की धूल को, वक़्त की हवा भले हीं उड़ा दें/ पर वह उस दरार को भरने में, कभी सक्षम नहीं होती, जो कड़वाहटों ने बना दी“। व्यंग्य के कवि ओम् प्रकाश पांडेय ‘प्रकाश‘ ने आज की राजनैतिक विदानवना को इन पंक्तियों में व्यक्त किया कि, “साँसत में सिसक–सिसक सो रहीं साहित्य संगीत कला/ राज नीति ने हर को छला“।
अपने अध्यक्षीय काव्य–पाठ में डा सुलभ ने , शैलेंद्र जी की बहुचर्चित कविता ‘बड़े दिनों के बाद‘ का स्मरण करते हुए, इसी शीर्षक से अपनी कविता पढ़ी कि, “बड़े दिनों के बाद हृदय को ठंढक पहुँची है/ बड़े दिनों के बाद उल्लास का सूरज चमका है/ हृदय के तार हिले हैं, साँसों में केवड़ा महका है/ मानस में पावस की कुछ बदली घुमड़ी है/ मन की तप्त भूमि पर मृदु फुहार पड़ी है/ पीपल के कोटर से कोई कोकिल चहका है।“
सम्मेलन के उपाध्यक्ष पं शिवदत्त मिश्र, अरुण शार्दुल, सुनील कुमार दूबे, पंकज प्रियम, राज कुमार प्रेमी, ऋतुराज पूजा, लता प्रासर, अश्विनी कुमार, सच्चिदानंद सिन्हा तथा कुमारी मेनका ने भी अपनी रचनाओं से कवि–गोष्ठी में रस का संचार किया। मंच का संचालन कवि योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।