रोटी की आस में बेदमिया ने लगाया मौत को गले

समाज, व्यवस्था, राजनीति और मीडिया की असंवेदनशीलता एक बार फिर सामने आयी है। घटना बिहार के शेखपुरा जिले के पिंजड़ी गांव की है। वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार बता रहे हैं वृद्धापेंशन लेने वालों का दर्द

रोटी की आस में बेदमिया ने लगाया मौत को गले
रोटी की आस में बेदमिया ने लगाया मौत को गले

 

समाज, व्यवस्था, राजनीति और मीडिया की असंवेदनशीलता एक बार फिर सामने आयी है। घटना बिहार के शेखपुरा जिले के पिंजड़ी गांव की है। वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार बता रहे हैं वृद्धापेंशन लेने वालों का दर्द

वृद्धावस्था पेंशन के लिए लाइन में लगी पंचा मांझी की बृद्ध पत्नी बेदमिया देवी की मौके पर ही मौत हो गयी। जागो मांझी की तरह ही बेदमिया देवी की मौत को जिला प्रशासन ने बीमारी करार दिया है।

शनिवार 2 मार्च को शिविर लगा कर पिंजड़ी गांव में सामाजिक सुरक्षा पेंशन बांटी जा रही थी। पेंशन के लिए सुबह से ही भीड़ होने लगी थी। कतार में वृद्ध खड़े होकर अपनी बारी का इंतजार रहे थे। कड़ी धूप थी। शिविर में कोई व्य्यवस्थ नहीं थी । बेदमिया देवी भी आई थी। इसी दौरान गश खाकर गिर गयी। अस्पताल लाया गया तब तक उसकी मौत हो चुकी थी।

इसके पहले शेखपुरा में ही एक महादलित जागो मांझी की कथित भूख से मौत हो गयी थी। जागो मांझी की मौत को लेकर खूब हंगामा हुआ। विपक्ष ने सवाल दागाऔर सरकार ने मौत का कारण बीमारी बता कर मामले पर पर्दा गिरा दिया। लेकिन, जागो तो सो गया और असंवेदनशील होते समाज व व्यवस्था को कटधरे में खड़ा कर गया। इस बार भी सवाल सामने आया है। सवाल स्थानीय पत्रकार अरूण साथी के प्रयासों से हुआ है। जागो मांझीकी खबर को उन्होंने ही सोशल मीडिया पर उठाया था। जागो की मौत के बाद पूरा महकमा जागा। मीडिया भी आंख मलते जगी। हंगामा मचा तो खबर बनीं। लेकिन, ज्यादातर राजनीतिक गलियारे की रही। हालांकि जागोमांझी ने मरने के बाद जो संदेश दिया उसे जगह नहीं मिली।

बहाना पर बहाना

साथी ने सोशल मीडिया पर बेदमिया देवी की मौत के एक दिन पूर्व ही लिख कर चेताया था कि, मरनेसे पहले आवाज सुनो…’’ वृद्धापेंशन ही लाचार बुजुर्गों का आसरा है। आठ माह बाद यह मिल रहा है पर जिनके पास आधार कार्ड या बैंक खाता नहीं उनको नहीं दिया जा रहा है। कर्मी दुत्कार कर भगा दे रहे हैं। जबकि यह नकददिया जा रहा है। सरकारी ऑफिस की व्यवस्था से सभी वाकिफ है।

बाबुगिरी

आधार कार्ड बनाने या बैंक खाता खुलबाने में कई बार दौड़ाया जाता है। जो एक कदम चल नहीं सकते वे कितनी बार दौड़ेंगे! पर लाल फीताशाही है, जो फरमानसुना दिया सो सुना दिया। देखिये बेचारी टुन्नी महारानी को, आँख का रेटिना शायद खराब है सो आधार नहीं बनाया गया पर पेंशन के लिए तो आधार जरुरी है…? और देखिये, बंगाली मांझी को..बेचारे इतनी गर्मी में भी स्वेटरपहन कर आये…शिकायत करने कि पेंशन नहीं दिया जा रहा…स्वेटर के बारे में पूछा तो सहजता से कहा…इहे एगो बस्तर है त की पहनियै!

बेदमिया या टुन्नी महारानी या बंगाली मांझी की कहानी अंतिम नहीं है। यह पूरे वृद्धापेंशनधारियों की है। वृद्धापेंशन के लिए टकटकी लगाये वृद्धों की आंखे तो पत्थरा ही गयी है साथ ही लगता है कि वृद्धापेंशन व्यवस्था से जुड़ेअधिकारियों की भी आंखें पत्थरा गयी है तभी तो उनके आंख से आंसू का एक कतरा भी नहीं बहता। इससे भी बुरा हाल मीडिया का है। उसे इन सामाजिक सरोकार की खबरों से कोई लेना देना नहीं। वैसे जिले-जिले में बंटे राष्ट्रीयव राज्यस्तरीय अखबारों का हाल यह है कि जिले की संवेदनशील खबर को भी राष्ट्रीय व राज्यस्तर पर जगह नहीं देते। गरीब, उपर से दलित की आवाज को उठाने की जहमत तक नहीं करते।

अगर मीडिया लगातार आवाजउठाये तो यकीनन हुजूर के कानों तक आवाज पहुंचेगी ही है। (लेखक-इलैक्ट्रोनिक मीडिया से जुड़े है)।

लेखक इल्कट्रानिक मीडिया के पत्रकार हैं.

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