हमारे सम्पादक इर्शादुल हक ने दिसम्बर 2008 में जॉर्ज बुश पर उछाले गये जूते से लेकर जनवरी 2015 में जीतन राम मांझी पर फेके गये जूते के पीछे के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश की है.
जूता उछालना दर असल घृणा जताने का प्रतीक तो है ही, यह एक सामंती सोच का परिचायक भी है जब आप यह जताने चाहते हैं कि निशाने पर लिए गये व्यक्ति को आप नीचा दिखाना चाहते हैं.
जूता उछालने का जब यही काम किसी बड़े व्यक्ति के ऊपर किया जाये तो आप यह बताना चाहते हैं कि आप उसे घृणा की हद तक नापसंद करते हैं और आप उसे समाज में अपमानित और नीचा दिखाना चाहते हैं. दूसरी तरफ जिस व्यक्ति पर जूता उछाला जाता है वह व्तक्ति भी यह महसूस करता है कि उसे अपमानित होना पड़ा. इस प्रकार जूते के प्रहार का उद्देश्य शारीरिक चोट पहुंचाने से ज्याद निशाने पर लिये गये व्यक्ति को मानसिक वेदना पहुंचाना होता है.
इतिहास
वैसे इस बात के शायद ह प्रमाण मिलें कि जूते उछालने की परम्परा को अपमान, अमर्यादा और नीचा दिखाने से कब और कैसे जोड़ दिया गया. लेकिन इतना तो कयास लगाया ही जा सकता है कि गुजरे जमाने में जूता वही उछाल सकते थे जो जूते खरीदने की हैसियत रखते थे. तब तो गरीबों के शरीर पर कपड़े भी नहीं हुआ करते थे, जूते कहां से आते. इस प्रकार सामंतवादी समाज में जूते मारने की सजा का मकसद भी यही था कि निशाने पर लिये गये व्यक्ति को भरी सभा में अपमानित किया जाये. लेकिन समय के परिवर्तन के साथ जूता उछालना विद्रोह का भी प्रतीक बनता चला गया. और 2008 की सर्दियों में जब टीवी पत्रकार मुंतदर अल जैदी ने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश पर जूता फेका तो यह एक इतिहास बन गया.
सामंती मानसिकता
जहां तक बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पर 5 जनवरी को जनता के दरबार कार्यक्रम में छपरा के इसुआपुर के अमृतेश ने जूता उछाला तो उसने चिल्लाते हुए कहा कि यहां ‘बैकवर्ड-फारवर्ड चलता है’. एक प्रकार से अमृतेश अपनी सामंती मानसिकता का परिचय दे रहा था. जूते उछालने की इस घटना को सामंती मानसिकता से इस लिए भी जोड़ा जायेगा कि निशाने पर लिये गये व्यक्ति यानी मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी दलित समाज से हैं.
ईरानी राष्ट्रपति अहमदी निजाद पर फेका गया जूता हो या फिर अक्टूबर में भारत के केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी पर मारा गया जूता हो या फिर दैनिक जागरण के एक पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा 7 अप्रैल 2009 को तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदम्बरम पर उछाला गया जूता हो या फिर तत्कालीन मुख्य मंत्री नीती कुमार की कार पर शिक्षकों द्वारा लगराया गया जूता ही क्यों न हो
दूसरी बात यह है कि अमृतेश का जो आपराधिक रिकार्ड सामने आया है उससे भी यह स्पष्ट है कि उसके खिलाफ छपरा में दलित उत्पीड़न के अनेक मामले पुलिस में दर्ज हैं. वह पीजी का छात्र है और आम आदमी पार्टी का विश्वविद्याल अध्यक्ष भी है. उसके तौर तरीके ऐसे रहे हैं कि वह सुर्खियों में बना रहे. पिछले दिनों वह डीएम के सामने प्रदर्शन कर पुलिस वालों को चुनौती भी दे चुका है जिसके नतीजे में उसे पिटाई भी खानी पड़ी.
2008 के बाद से पब्लिक फिगर पर जूते उठाने की घटना काफी बढ़ी हैं और यह एक अंतरराष्ट्रीय स्वरूप ले चुकी है. पिछले दिनों चीन के पूर्व नेता वेन जियाबो पर कैंब्रिज युनिवर्सिटी में जूते उछालने का प्रकरण हो या ईरानी राष्ट्रपति अहमदी निजाद पर फेका गया जूता हो या फिर अक्टूबर में भारत के केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी पर मारा गया जूता हो या फिर दैनिक जागरण के एक पत्रकार जरनैल सिंह द्वारा 7 अप्रैल 2009 को तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदम्बरम पर उछाला गया जूता हो या फिर तत्कालीन मुख्य मंत्री नीती कुमार की कार पर शिक्षकों द्वारा लगराया गया जूता ही क्यों न हो. यह सब घृणा दर्शाने और विद्रोह जताने के अलावा और क्या है. विद्रोह की इस मानसिकता में स्वप्रचार भी निहित है. इस प्रकार इसे मीडिया में सुर्खियां बटोरने का असलहा भी कहा जा सकता है.
सामाजिक विभाजन
लेकिन जहां तक मुख्यमंत्री जीतन राम पर उछाले गये जूते का सवाल है, यह इस मामले में अलग है कि अमृतेश जूते उछालते समय जो वाक्य दोहराता रहा- यनी ‘बैकवर्ड- फारवर्ड’, यह समाज की एक खास मानसिकता को दर्शाता है. यह बताता है कि बिहारी मानस में सामाजिक विभाजन कितना गहरा है. इससे एक पूरा वर्ग गौरवान्वित होता है तो दूसरा पूरा वर्ग अपमानित होता है. ऐसे में इस घटना को राजनीतिक लाभ-हानि के रूप में भी लिया जाये तो कोई आश्चर्य नहीं. लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह एक दुर्भाग्यपूर्ण मामला है. खास कर तब जब हम जूते उछालने को एक व्यक्ति या एक पद से जुड़ा मानने के बजाये एक पूरे समाज से जोड़ कर देखें.