अभी बीते मार्च की ही बात है. अररिया में उपचुनाव हुआ था. तस्लीमुद्दीन की मौत के बाद उनके बेटे सरफराज उनकी राजनीतिक विरासत के लिए लड़े थे. और जीते थे. फर्क यह था कि सरफराज जदयू छोड़ कर राजद से लड़े थे.
[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम, फॉर्मर इंटरनेशनल फेलो, फोर्ड फाउंडेशन[/author]
तस्लीमुद्दीन के जनाजे में उमड़ी भीड़ उनकी लोकप्रियता को दर्शाती है. सितम्बर 2017 में उनकी मौत हुई थी.
इस बार सरफराज की छोड़ी हुई सीट,जोकीहाट से उन्हीं के भाई शाहनवाज मैदान में हैं. राजद से. यह सीट जदयू की रही है. सरफराज के राजद में आ जाने के बाद जदयू की पहली चुनौती एक मजबूत उम्मीदवार देने की थी. उसने मुर्शीद आलम को चुना. मुर्शीद स्थानीय मुखिया हैं. इस विधानसभा क्षेत्र में 31 मई को चुनाव होना है.
चुनाव में किसकी जीत किसकी हार होगी इससे परे यह महत्वपूर्ण है कि यह चुनाव नीतीश कुमार व तेजस्वी यादव के लिए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. ऐसा इसलिए कि यह उपचुनाव भविष्य के उस ट्रेंड को तय करेगा जिसके आधार पर यह अंदाजा लगेगा कि महागठबंधन छोड़ कर भाजपा के साथ हाथ मिला लेने के बाद नीतीश कुमार को मुसलमानों ने रिजेक्ट किया है या अभ भी उनके प्रति मुसलमानों का झुकाव है.
याद रखने की बात है कि जोकीहाट में मुस्लिम वोर्टस 78.38 प्रतिशत के करीब हैं.
लेकिन अगर जोकीहाट से तस्लीमुद्दीन के परिवार का कोई व्यक्ति जीतता है, जैसा कि शाहनवाज आलम, तो इस जीत को कैसे देखा जायेगा? पिछले कुछ दिनों से कुछ विश्लेषक इस की व्याख्या करते समय कुछ बातें नजर अंदाज कर दे रहे हैं. और यह कह रहे हैं कि इस चुनाव में अगर शाहनवाज की जीत हुई तो यह माना जायेगा कि अररिया के मुसलमानों ने नीतीश को रिजेक्ट कर दिया और तेजस्वी के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया. मेरे हिसाब से यह विश्लेषण थोड़ा सतही है. जोकीहाट में न तो राजद कभी मजबूत रहा है और न ही जदयू. यहां बस एक परिवार मजबूत रहा है, वह है तस्लीमुद्दीन परिवार. तस्लीमुद्दीन, या उनका बेटा सरफाराज जिस दल से लड़ें वह जीतते हैं. यहां से तस्लीमुद्दीन के बड़े बेटे सरफराज तीन बार जदयू से लड़े और जीते हैं. इस सीट पर राजद से इस परिवार ने 6 बार चुनाव जीता है. पिछले विधानसभा में सरफराज जदयू से जीते थे.
सबसे बड़ा फैक्टर है तस्लीमुद्दीन की लिगेसी
ऊपर के आंकड़ें ओर तथ्यों पर फिर से गौर कीजिए. अररिया और जोकीहाट ही नहीं, पूरे सीमांचल में तस्लीमुद्दीन एक कद्दावर नेता के रूप में पिछले 3 दशक से स्थापित रहे हैं. उनके लिए कभी इस बात के लिए फर्क नहीं पड़ा कि वह किस दल से चुनाव लड़ रहे हैं. यही कारण है कि तस्लीमुद्दीन बिहार के चंद गिने चुने मुस्लिम नेताओं में से थे जिन्हें बएक वक्त नीतीश कुमार और लालू यादव पूरा सम्मान देते थे. तस्लीमुद्दीन को अपनी ताकत का अंदाजा था इसलिए वह किसी दल के पास टिकट लेने नहीं जाते थे, दल या पार्टियां उनके दरवाजे पर पहुंच कर अपना प्रत्याशी बनाती थीं.ऐसे में अगर जदयू के प्रत्याशी मुर्शीद आलम और राजद के शाहनवाज आलम की तुलना की जाये तो मुर्शीद अपनी पहचान के लिए संघर्षरत नेता हैं, जबकि शाहनवाज एक मजबूत राजनीतिक विरासत के शिखर पर बैठे हुए घराने से ताल्लुक रखते हैं. लिहाजा शाहनवाज अगर जीतते हैं तो इस तेजस्वी यादव के नेतृत्व की जीत के रूप में देखना, जोकीहाट की राजनीतिक स्वरूप का सरलीकरण करना है. क्योंकि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि तस्लीमुद्दीन का घराना जिस दल से चुनाव लड़ता है, उस दल की जीत होती रही है. राजद लगातार कई बार वहां से चुनाव हार चुका है, क्योंकि तस्लीमुद्दीन का घराना तब जदयू के साथ था. इसकी एक और दिलचस्प मिसाल यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पिता तस्लीमुद्दीन राजद से लड़े और जीते. जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में उसी क्षेत्र में आने वाले विधानसभा की सीट से पुत्र सरफराज जदयू से लड़े और जीते. और फिर लगे हाथों तस्लीमुद्दीन की मौत के बाद, सरफराज ने जदयू छोड़ दिया और उसी सीट पर उपचुनाव राजद के टिकट पर लड़े और जीते.
वहीं दूसरी तरफ अगर जदयू के प्रत्याशी मुर्शीद की जीत होती है तो जोकीहाट के चुनावई इतिहास में एक नये चेप्टर की शुरआत मानी जायेगी. न सिर्फ यह तस्लीमुद्दीन परिवार की विरासत के किले के दरकने की शुरआत होगी बल्कि मुसलमानों में नीतीश की मजबूत पैठ की गारंटी के तौर पर इसे देखा जायेगा.
नीतीश से नाराज हैं मुसलमान
यह सच है कि बिहार के मुसलमान आम तौर पर नीतीश कुमार से नाराज हैंं. उनकी नाराजगी राजद गठबंधन छोड़ कर भाजपा के साथ हाथ मिला लेने के कारण है. ऐसे में मुसलमान वोटरों को नीतीश कैसे अपनी ओर आकर्षित कर पाते हैं यह एक महत्वपूर्ण सवाल है.
इस उप चुनाव में एक दूसरी महत्वपूर्ण बात को नोट करने की जरूरत है. मार्च में हुए अररिया लोकसभा उपचुनाव में एनडीए की तरफ से भाजपा के प्रदीप सिंह उम्मीदवार थे. वह सरफाराज से हार गये थे. चुनाव से पहले भाजपा के बड़े नेताओं ने यहां साम्प्रदायिक डिविजन करने की भयावह भूल कर दी. गिरिराज सिंह जैसे नेताओं ने बयान दिया कि अगर राजद यहां से जीतता है तो अररिया आईएसआई का गढ़ बन जायेगा. एक केंद्रीय मंत्री के ऐसे ओछे बयान का वहां उलटा असर हुआ. इतना ही रिजल्ट आने के बाद राजद के कार्यकर्ताओं ने जीत का जो जश्न मनाया उस जश्न के दौरान फेक विडियो वायरल कराया गया, जिसमें पाकिस्तान जिंदाबाद जैसे नारे जोड़े हुए थे. लेकिन जोकीहाट के इस चुनाव में भाजपा के गिरिराज सिंह ने अभी तक यह घोषणा नहीं की है कि अगर वहां से राजद जीतेगा तो वह इलाका आईएसआई का गढ़ बन जायेगा. पता है ऐसा क्यों नहीं किया जा रहा है? इसलिए कि अररिया लोकसभा सीट के अंदर जोकीहाट एक ऐसा विधानसभा क्षेत्र है जहां सबसे ज्यादा मुसलमान हैं. अगर गिराज जैसे नेताओं ने यहां साम्प्रदायिक भाईचारे को बिगाड़ने की कोशिश की तो इसका साफ मतलब है कि जदयू के कंडिडेट की हार निश्चित है. वजह साफ है कि यहां अल्पसंख्यक ही बहुसंख्यक हैं.
इसी के बारे में सीमांचल के गांधी के जनाजे में उमड़ा लाखों का सैलाब
तस्लीमुद्दीन जैसे लीडर सदियों में पैदा होते हैं