दिल्ली में कानून ठेंगे पर है. अदालत अपनी अवमानना पर सकते में. पुलिस बेशर्मी की हद तक निकम्मी, विधायक-वकील हिंसक और मंत्री पूछे कि ‘हत्या तो नहीं हुई’ तो जंगल राज इसे ही कहेंगे न?
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
केंद्र सरकार की नांक के नीचे दिल्ली में जंगल राज अपने चरम पर है. जिस देश का गृह राज्य मंत्री पटियाला कोर्ट के हिंसा पर पूछे कि ‘वहां हत्या तो नहीं हुई’ , पुलिस आयुक्त पत्रकारों, छात्रों,आम लोगों और जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष पर हिंसक आक्रमण को ‘मामली हाथापाई’ कहे, स्थानीय भाजपा विधायक खुद हिंसक आक्रमणकारियों का हिस्सा हो और ‘बंदूक होती तो गोली मार देते’ कहके हाथ में बंदूक न होने का अफसो जताये तो इससे बड़ा जंगल राज और क्या हो सकता है.
कन्हैया पर आक्रमण करने वाले वकील की तस्वीर भाजपा के लगभग हर बड़े नेता के साथ हो, गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ हो और पुलिस इस हमलावर वकील को अज्ञात समझे तो फिर ऐसी पुलिस पर अफसोस ही जताया जा सकता है.
जहां कोट का आदेश और कानू हैं ठेंगे पर
दिल्ली, उस दिल्ली जिस पर कानून का राज कायम करने की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है, वहां जंगल राज इसलिए भी है कि जब काले कोर्ट में, भगवा नजरीये से लबरेज कानून के रखवाले खूनखार भेड़िये बन कर जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष पर लात-घूसों से आक्रमण करे, अदालत परिसर में हिंसक गिरोह बन कर खड़ा हो जाये और वह भी तब, जब सुप्रीम कोर्ट का सख्त आदेश हो कि हिंसा न होने पाये लेकिन तब भी हिंसा के झंडाबरदारों को कानून-व्यवस्था के रखवालों के मुखिया बीएस बस्सी मामूली नोक झोक बता कर पलला झाड़ ले तो यह जंगल राज है. यह जंगल राज इसलिए भी है कि देश की सर्वोच्च अदालत जब इस हिंसा के जायजे के लिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकीलों की टीम भेजे और भगवा नजरीय के छुठभइए लफंगे वकीलों द्वारा उन्हें पाकिस्तानी एजेंट बताते हुए बोतलों, बालू और ईंटों से आक्रमण का शिकार बनाया जाये तो यह जंगल राज है. यह जंगल राज इसलिए भी है कि जिस देश की सर्वोच्च अदालत के हस्तक्षेप के बावजूद, कि वहां हिंसा न हो, फिर संगठित तौर पर हिंसा को अंजाम दिया जाये तो यह न सिर्फ सर्वोच्च अदालत का अपमान और उसकी अवमानना है बल्कि यह जंगल राज है.
भगवा अपातकाल
यह केंद्र की अघोषित संघी अपातकाल में पसरा जंगल राज है, जहां जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष को पुलिस बिना एफआईआर के उठा ले. फर उन पर देशद्रोह की धारायें लगा दे. भगवा विचारों के लफंगे वकीलों को सरकारी शह मिले और अभियुक्त को अदालत परिसर में घुसने न दे और अदालत इतनी बेबस हो कि अदालत में पसरे हिंसक माहौल के भय से कहीं दूसरी जगह छप-छुपा कर अदालत लगा कर कन्हैया को पुलिस रिमांड का आदेश देना पड़े तो यह जंगल राज है.
यह जंगल राज इसलिए भी है कि जब केंद्र सरकार इन घटनाओं पर उस वक्त तक खामोश रहे जब तक कि मीडिया इस हिंसा को दुनिया को न बता दे.
इंदिरा की राह चले मोदी
इंदिरा के अपातकाल और मोदी के अघोषित भगवा अपातकाल में एक ही असमानता है. यह असमानता यह है कि मोदी सरकार ने अपात्काल की कोई औपचारिक घोषणा किये बिना अपातकाल की स्थिति पैदा कर दी है. इंदिरा और मोदी के अपातकाल में समानता भी है. समानता यह है कि इंदिरा के दौर में लागू किये गये अपातकाल में पहला प्रहार अभिव्यक्ति की आजादी पर किया गया था. और मोदी सरकार के अघोषित भगवा अपात्काल में भी पहला प्रहार भी स्वतंत्र विचार रखने वालों को दमन का शिकार बना कर किया जा रहा है.
जहां तक जेएनयू परिसर में कथित तौर पर देश विरोधी नारे लगाने वालों के खिलाफ देश का गद्दार घोषित करने वाली धारा लागाने की बात है तो इस पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह खुद घिरते जा रहे हैं. खुद उनके अधीन काम करने वाली गुप्तचर संस्था आईबी ने इस मामले पर अपना मुंह खोला है. आईबी ने कहा है कि कन्हैया पर जल्दबाजी में देशद्रोह की धारायें लगायी गयी हैं. उधर कानूनी विषज्ञों का भी मानना है कि कन्हैया के खिलाफ देशद्रोह का मामला अदालत में नहीं ठहरने वाला. और अब तो हालत यहां तक आ पहुंची है कि दिल्ली पुलिस के जिस पुलिस आयुक्त बीएस बस्सी को मजबूर हो कर कहना पड़ा है कि वह कन्हैया की जमानत का विरोध नहीं करेंगे.
केंद्र सरकार, दिल्ली पुलिस और भाजपा समर्थित वकीलों को जान लेना चाहिए कि उनकी अराजकता ज्याद दिन टिकने वाली नहीं है.