लोकतंत्र में प्रतिपक्ष को भी सरकार का हिस्सा माना जाता है। यही कारण है कि विधान सभा में नेता प्रतिपक्ष को मंत्री का दर्जा दिया गया है और मंत्री के तरह सरकारी सुविधाओं को भोगने का अधिकार भी। लाल बत्ती, बंगला, कार, स्टाफ सब मंत्री के बराबर। विधान सभा में बैठने के लिए कुर्सी भी मुख्यमंत्री के सामने। लेकिन जिम्म्ेवारी के नाम पर इनके जिम्मे सिर्फ हंगामा होता है। बहिष्कार और गेट पर तख्ती प्रदर्शन। कार्यवाही का वाकआउट कर के हाउस से बाहर निकलते हैं और मीडिया के सामने जाकर कहेंगे- सरकार निकम्मी है। लेकिन खुद कौन- सा काम विपक्ष करता है, इस पर कुछ नहीं बोलते हैं।
वीरेंद्र यादव
हम बिहार में विपक्ष की बात कर रहे हैं। कभी विपक्ष मुद्दों पर बात नहीं करता है, न सदन में, न सदन के बाहर। आप विपक्ष के शीर्ष नेतृत्व को देख लें। फेसबुक, टि्वटर और अखबार कटिंग के अलावा इनके पास कौन सी पूंजी है। विपक्ष का नेतृत्व कभी बड़े मुद्दों को लेकर पार्टी मुख्यालय से बाहर नहीं निकल सका। प्रेस रिलीज, प्रेस कॉन्फ्रेंस और सोशल मीडिया, यही अपनी बात कहने के मंच बन गए हैं। इन तीनों का आम आदमी से कोई वास्ता नहीं है। प्रेस रिलीज में कोई मुद्दा नहीं, सिर्फ गलथेथरी।
आउट सोर्सिंग पर मौन
विपक्ष के सामने ‘अर्थहीन’ सरकार है। नीतीश कुमार से सरकार शुरू होती है और नीतीश कुमार पर खत्म। इसलिए प्रशांत किशोर पांडेय जैसे लोग आते हैं, जिनकी आउट सोर्सिंग के भरोसे ‘नीतीश निश्चय’ को बाजार में बेचा जाएगा। वैसे में मुद्दों पर बात करने के हजारों मुद्दे हैं। विचार और दृष्टिकोण के आधार नया चेहरा पेश करने के विकल्प खुले हैं। लेकिन विपक्ष जंगलराज से आगे बढ़ने को तैयार नहीं है। लालू यादव के साये मुक्त होने को तैयार नहीं है। विपक्ष मुख्यालय से बाहर निकलने को तैयार नहीं है। इसे ही तो ‘मरा हुआ’ विपक्ष कहते हैं, जिसके पास अपना कुछ नहीं है। न करने के लिए, न कहने के लिए। निकम्मी सरकार से ज्यादा खतरनाक है मरा हुआ विपक्ष। यह बात सत्ता पक्ष को भी समझना होगा और विपक्ष को भी।