कमल किशोर गोयनका ने डॉ. ओम प्रकाश साह प्रियम्वद की पुस्तक ‘प्रेमचंद के उपन्यास और समाजवादी चिंतन’ में भूमिका लिखते हुए कई तरह की बातें की हैं और कम्युनिस्टों सहित प्रगतिशील लेखक संघ पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उस भूमिका को पुस्तक लेखक से अनुमति लेते हुए संक्षेप में यहां हम अपने रीडर्स के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।
प्रणय, वरिष्ठ पत्रकार
प्रेमचंद की जयंती पर विशेष
क्या कारण है कि प्रेमचंद आज भी पुराने नहीं हुए हैं और आज भी उन्हें समझने और समझाने का प्रयत्न हो रहा है? हिन्दी में ऐसे उदाहरण कबीर और गोस्वामी तुलसीदास को लेकर ही मिलते हैं। प्रेमचंद आधुनिक हिन्दी साहित्य के अकेले ऐसे कथाकार हैं, जो अपने समय के चित्रकार तो हैं ही, लेकिन भविष्य के मनुष्य और समाज के रेखाचित्रों को भी उनके साहित्य में खोजने का प्रयत्न चलता रहता है। साहित्य में यह कार्य उसी रचनाकार के साथ होता है, जो देश और काल की सीमाओं को छिन्न-भिन्न करके सब काल का रचनाकार बन जाता है, जो सीमाओं और काल को लांघकर संपूर्ण मानवीय वातावरण में फैल जाता है।
प्रेमचंद ऐसे ही रचनाकार हैं, जो अपने समय के सत्य के उद्घाटनकर्ता तथा चित्रकार हैं, परन्तु उनके उपन्यास और कहानियां उन्हें विभिन्न क्षेत्रों, भाषाओं तथा भौगोलिक सीमाओं तक व्याप्त कर सब का रचनाकार बना देती हैं। भाषा, क्षेत्र, धर्म, देश आदि की सभी सीमाएं टूट जाती हैं और वे मानवीय जगत के लेखक बन जाते हैं। अत: डॉ. ओम प्रकाश साह प्रियम्वद यदि प्रेमचंद को विचारोत्तेजक मानते हैं तथा संवाद एवं विवेचन के लिए सार्थक समझते हैं, तो ठीक ही समझते हैं। प्रेमचंद कुछ ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिन्हें कबीर की तरह विभिन्न संप्रदायों तथा राजनीतिक विचार-वादों के लोग अपने-अपने शिविरों में स्थापित करना चाहते हैं।
प्रेमचंद की जीवित-अवस्था तक तथा उससे कुछ वर्षों तक वे गांधी और स्वाधीनता संग्राम के साहित्यिक संस्करण माने जाते रहे, लेकिन हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के हिन्दी-उर्दू लेखकों ने मार्क्सवाद की स्थापना और प्रचार-प्रचार के लिए प्रेमचंद को सीढ़ी बनाया और उनके प्रगतिशील लेखक संघ के उद्घाटन भाषण का उन्होंने मार्क्सवादी लेखक स्वीकृत करने मे भरपूर प्रयोग किया। इन हिन्दुस्तानी कम्युनिस्ट लेखकों ने कभी यह नहीं बताया कि प्रेमचंद प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष नहीं बनना चाहते थे और उन्होंने अपने अध्यक्षीय भाषण में प्रगतिशील शब्द के प्रयोग का विरोध किया था। डॉ. राम विलास शर्मा ने ‘प्रेमचंद’ शीर्षक पुस्तक में जो 1941 में छपी थी, इस तथ्य का उल्लेख किया है, किन्तु बाद के संस्करणों में पार्टी के दबाव के कारण उसे हटा दिया गया। डॉ. रामविलास शर्मा ने इस पुस्तक में प्रेमचंद की ‘भारतीयता ‘ की भी चर्चा की है, परन्तु बाद के संस्करणों में इसे भी हटा दिया गया। प्रेमचंद को मार्क्सवादी लेखक बनाने में कम्युनिस्ट पार्टी तथा उसके लेखकों का कितना दबाव था तथा किस प्रकार का षडयन्त्र था, यह इन तथ्यों से समझा जा सकता है।
यदि आप ‘प्रगतिशील लेखक संघ ‘ के 1942 के अधिवेशन के बाद प्रकाशित होने वाली प्रेमचंद समीक्षा के इतिहास को देखें तो आपको इस कम्युनिस्टी षडयंत्र के दस्तावेजी प्रमाण मिल जाएंगे। इन कम्युनिस्ट आलोचकों में डॉ. रामविलास शर्मा, अमृतराय, प्रकाश चंद्र गुप्त, मन्मथनाथ गुप्त, नामवर सिंह,कुंवरपाल सिंह, शिव कुमार मिश्र आदि अनेक आलोचकों का उल्लेख किया जा सकता है। इन आलोचकों ने प्रेमचंद को मार्क्सवादी के रूप में स्थापित करने के लिए कई प्रकार के कार्य किए।
1. इन्होंने ये सिद्ध किया कि प्रेमचंद की आरंभिक रचनाओं में ही सुधारवाद और आदर्शवाद मिलता है, बाद की रचनाओं में नहीं।
2. इन्होंने यह सिद्ध किया कि प्रेमचंद का सुधारवाद और आदर्शवाद वायवी एवं कल्पना जनित था और वह उनकी अपरिपक्वता का प्रमाण था (अर्थात यह एक प्रकार का साहित्यिक चरित्र-हनन था, जो कम्युनिस्टों की आक्रमण- पद्धति का अंग है।)
3. प्रेमचंद क्रमश: परिपक्व होते गए और अंतिम समय में वे सुधारवाद, आदर्शवाद तथा गांधीवाद से स्वयं को मुक्त करके मार्क्सवादी हो गए।
4. प्रेमचंद की अंतिम रचनाएं- गोदान, मंगलसूत्र, महाजनी सभ्यता, कफन आदि ही वास्तविक प्रेमचंद की रचनाएं हैं और इनसे ही वे जीवित रहेंगे। इस प्रकार इनकी दृष्टि में शेष साहित्य निरर्थक तथा अनुपयोगी है।
5. प्रेमचंद आदर्शवादी नहीं शुद्ध यथार्थवादी थे, क्योंकि वे यथार्थवादी होकर ही मार्क्सवादी बन सकते थे। अत: कम्युनिस्ट आलोचकों का प्रेमचंद के आदर्शवाद को ध्वस्त करके उसे निरर्थक सिद्ध करना आवश्यक था।
मैं यहां कम्युनिस्टों का अन्य चालों की विस्तृत व्याख्या कर सकता हूं, परन्तु भूमिका में इतना अवकाश नहीं है। मुझे प्रसन्नता है कि डॉ. ओम प्रकाश साह प्रियम्वद ने इस प्रश्न को केन्द्रीय प्रश्न बनाकर प्रेमचंद के सामाजवादी चिंतन पर इतनी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। यह महत्वपूर्ण है कि वे प्रेमचंद की स्थापित मार्क्सवादी एवं समाजवादी मूर्ति से सहमत नहीं हैं तथा वे इसे उनके उपन्यासों के संदर्भ में नये सिरे से अपने तर्कों के साथ समझना और समझाना चाहते हैं। यह प्रयास ही स्थापित मान्यताओं को एक चुनौती है, जो अपने तथ्यों एवं तर्कों के साथ अपनी मान्यताओं को स्थापित करती है। प्रेमचंद की स्थापित मान्यताओं एवं निष्कर्षों को ऐसी चुनौतियां ही उनके शोध एवं समीक्षा को विकसित कर सकती हैं और नई-नई दिशाओं का उद्घाटन हो सकता है। प्रेमचंद की नयी पहचान और युग के संदर्भ में उनकी सार्थकता की खोज ही उन्हें हमारे बीच अधिक से अधिक सार्थक और अर्थवान बना सकती है।
डॉ. ओम प्रकाश साह प्रियम्वद की इस पुस्तक का मैं स्वागत करता हूं और मानता हूं कि प्रेमचंद के समाजवाद को समझने के लिए यह पुस्तक महत्वपूर्ण योगदान करेगी। समाजवाद ऐसा जीवन दर्शन है, जो सदैव ही उपयोगी बना रहेगा। मनुष्य और समाज दोनों ही के लिए इसे उपयोगी बनाना होगा। प्रेमचंद इसे समझते थे। इस कारण वे समाज के साथ व्यक्ति के महत्व को स्थापित करते हैं। प्रेमचंद के समाजवाद में व्यक्ति की सत्ता नष्ट नहीं होती, जैसी लेनिन, स्टालिन और माओ के समाजवाद में होती है। रूसी समाजवाद इसीलिए नष्ट हो गया, क्योंकि वहां व्यक्ति की इकाई और सत्ता राज्य और सर्वहारा की सरकार ने नष्ट कर दी थी। कोई भी व्यवस्था व्यक्ति के बिना नहीं चल सकती और प्रेमचंद इसे समझते थे। वे जीवन पर्यन्त इसी व्यक्ति को संस्कारित व मनुष्य बनाने के लिए साहित्य की रचना करते रहे। व्यक्ति यदि मनुष्य नहीं बना, यदि वह अपने विकारों तथा अमानवीय प्रवृत्तियों को संस्कारित करके एक अच्छा इंसान नहीं बना, तो कोई भी समाजवाद सफल नहीं हो सकता। अत: प्रेमचंद के समाजवाद में व्यक्ति के उत्कर्ष और उदात्तीकरण के साथ ही समाज का उत्कर्ष और उदात्तीकरण जुड़ा है। प्रेमचंद के समाजवाद को समझने में इस बिन्दु को भी सामने रखना आवश्यक है।