टना,११ जून। तड़प है कि तलब है कि, ज़िद है बाक़ी/ यह दिल भी धड़कता है कि उम्मीद है बाक़ी, “पत्थर पड़े हुए थे लाख क़दमों के सामने/ ज़ख़्मों की लम्बी दास्ताँ है आँखों के सामने” — जैसी,दिल में चूभन पैदा करने वाली और मीठी गंध भरी पंक्तियों से, आज बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन महका–महका दिखा। कवियों और कवयित्रियों ने अपनी रचनाओं से एक ऐसा समाँ बांधा कि, वापस जाते श्रोताओं की ज़ुबान पर कवियों की पंक्तियाँ थिरक रही थी। अवसर था कवि पं रामदेव झा की जयंती पर आयोजित कवि–सम्मेलन का।
वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश‘ने नसीहत देते हुए कहा कि, “हम अपने को चलें सुधारे, मिल जुल कर यह काम करें/ ढूँढें हममें दोष कहा हैं, ग़लती कहाँ तुम्हारी है/ फूल खिले ताज़ा भीनी ख़ुशबू,मन है एक तोड़ें क्या?छूने से भी डर लगता,काँटों की पहरेदारी है“। डा शंकर प्रसाद ने अपने हाले–दिल का इस तरह बयान किया कि, “पत्थर पड़े हुए थे लाख क़दमों के सामने/ ज़ख़्मों की लम्बी दास्ताँ है आँखों के सामने/ तुमने कहा था दूर हीं अहसास पास है/जब भी पुकारो आऊंगी आँखों के सामने“।
कवि जय प्रकाश पुजारी ने मीठे सवार से यह गीत पढ़ा कि, “बिन घुँघरू बिन पायल नाचूँ छमछम तेरे गाँव में/ ओरे ओरे साजन तेरे गाँव में“। व्यंग्य के कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय ‘प्रकाश‘ने श्रोताओं से सवाल किया कि “तुमको भी क्या नेता की तरह सिर्फ़ सत्ता चाहिए? जाती के पेंड और वोट का पत्ता चाहिए?”
इस अवसर पर पं झा के पुत्र और कवि राज किशोर झा ने, नदियों के बांधे जाने की पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाली उनकी प्रसिद्ध रचना, “बँधती आज नदी की धार/ लहरें विकल विकल होती हैं / धारा में उठ गिर रोती हैं” का पाठ किया।
वरिष्ठ कवि अमियनाथ चटर्जी, डा सुनील कुमार दूबे, डा मेहता नगेंद्र सिंह, कवि घनश्याम, राज कुमार प्रेमी, डा सुधा सिन्हा, ऋषिकेश पाठक, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, नंदिनी प्रनम, अर्चना सिन्हा, शुभ चंद्र सिन्हा, शंकर शरण आर्य, रवींद्र कुमार सिंह, सुनील कुमार,सच्चिदानंद सिन्हा,बाँके बिहारी साव,अर्जुन प्रसाद सिंह आदि कवियों ने भी अपनी कविताओं से, श्रोताओं को प्रभावित किया।
अपने अध्यक्षीय काव्य–पाठ में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने तरन्नुम के साथ अपनी नई ग़ज़ल पढ़ी कि, तड़प है कि तलब है कि, ज़िद है बाक़ी/ यह दिल भी धड़कता है कि उम्मीद है बाक़ी/ वो जब से गए हैं दूर देकर दीद हमें। तब से इन आँखों में कहाँ नींद है बाक़ी।“
इसके पूर्व डा सुलभ ने कवि रामदेव झा की स्मृति को नमन करते हुए,उन्हें प्रेम, करुणा और आस्था का कवि बताया। उन्होंने कहा कि पं झा हिन्दी के समर्पित सेवक थे। नगर में सदैव साहित्यिक जागरण में लिप्त रहा करते थे। उन्होंने महाकवि जयशंकर प्रसाद की स्मृति में ‘प्रसाद साहित्य परिषद‘ नामक एक संस्था बना रखी थी, जिसके माध्यम से अपने आवास पर प्रत्येक सप्ताह साहित्यिक–गोष्ठियाँ किया करते थे। ‘जलता है दीपक‘ नामक उनकी काव्य–रचना बहुत हीं लोकप्रिय हुई थी, जिसमें जीवन के प्रति राग और उत्साह की अभिव्यक्ति मिलती है।
इस अवसर पर पं झा के पुत्र और कवि राज किशोर झा ने, नदियों के बांधे जाने की पीड़ा को अभिव्यक्त करने वाली उनकी प्रसिद्ध रचना, “बँधती आज नदी की धार/ लहरें विकल विकल होती हैं / धारा में उठ गिर रोती हैं” का पाठ किया।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्र नाथ गुप्त, डा वासुकी नाथ झा, धीरेंद्र कुमार आज़ाद, मूल चंद्र, शम्मी कपूर आदि अनेक विद्वानों ने भी अपने विचार व्यक्त किए। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने किया।धन्यवाद–ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।