तो बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्टों की इज्जत मुसलमानों ने बचायी.नौकरशाही डॉाट कॉम के एडिटर इर्शादुल हक आंकड़ों के आईने में बता रहे हैं कि मुसलमान सिर्फ मतदाता नहीं बल्कि सियासी हिस्सेदार बनने का हुनर सीख चुके हैं.
पश्चिम बंगाल चुनाव में अपनी ताकत आजमाने वाली तीन बड़ी पार्टियों में कम्युनिस्ट बुरी तरह पिछड़ गये. वाम विचार से प्रभावित किसी से जब आप इसकी वजह पूछेंगे तो आंख मूंद कर जवाब देगा- “मुसलमानों का वोट उन्हें उचित अनुपात में नहीं मिला”. लेकिन राज्य के चुनाव परिणामों पर पैनी निगाह डालिये तो साफ पता चलेगा कि अगर पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्ट बचे हैं तो उसमें मुसलमानों की भागीदार उम्मीदों से ज्यादा है.
इन आंकड़ों पर गौर करने से चीजें स्पष्ट हो जायेंगी.
कम्युनिस्ट और मुसलमान
30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में कुल 294 सीटें हैं. जबकि कम्युनिस्टों को मात्र 22 सीटों पर सब्र करना पड़ा. इन 22 विधायकों में जीतने वाले मुस्लिम विधायको की संख्या 9 है. यानी कुल जीते उम्मीदवारों में से लगभग 41 प्रतिश मुस्लिम हुए. मुसलमानों का इतना व्यापक रिप्रजेंटेशन कम्युनिस्ट शासन के 30 वर्षों में भी कभी नहीं देखने को मिला. आखिर जो 41 प्रतिशत मुसलमान प्रत्याशी जीते हैं तो उनमें मुस्लिम मतदाताओं के कितनी व्यापक भागीदारी रही, इसका अनुमान लगाने के लिए किसी और सुबूत की जरूरत नहीं है.
कम्युनिस्टों की हार की जिम्मेदारी सिर्फ मुसलमानों के सर डालने वाले वाम विचारकों को अपनी आंखें खोलनी चाहिए. दर असल कम्युनिस्ट शासन के इतिहास को खंगालें तो साफ हो जायेगा कि कम्युनिस्टों ने सत्ता में रहते मुसलमानों को टिकट बंटवारे में कभी ईमानदारी से भागीदारी ही नहीं दी. लेकिन जब कम्युनिस्ट राज्य में कमजोर हुए तब उन्हें मुसलमानों के महत्व का एहसास हुआ. वरना 30 वर्षों के सत्ता काल में उन्हें यही लगता रहा कि मुसलमान तो उनके बैंक बैलेंस हैं, जैसे चाहें उनका इस्तेमाल करें. लेकिन 2011 में कम्युनिस्टों के खिलाफ जा कर मुसलमानों ने ममता को सहारा दिया तो उन्हें मुस्लिमों का महत्व और रिप्रजेंटेशन का ख्याल आया.
कांग्रेस और मुसलमान
बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद मुसलमानों ने कांग्रेस से मुंह मोडना शुरू किया. पहले यूपी में और फिर बिहार में मुसलमानों ने कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया. जिसका दंश कमोबेश कांग्रेस आज तक राज्यों में भुगतती रही है. लेकिन जहां तक पश्चिम बंगाल चुनाव के ताजा परिणामों की बात है तो कांग्रेस की डुबती नैया अगर कुछ हद तक बची है तो वह भी मुसलमानों की भारी हिमायत के कारण ही. राज्य में पार्टी के 44 एमएलए जीत कर आये हैं. जीतने वाले इन 44 उम्मीदवारों में 18 मुस्लिम एमएलए बने हैं. मुस्लिम एमएलए की यह संख्या भी 41 प्रतिशत बनती है. कांग्रेस ने राज्य में 100 सीटों पर चुनाव लड़ा. अगर 41 प्रतिशत सीटों पर मुस्लिमों ने कब्जा किया तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि कांग्रेस को मुसलमान वोटरों ने कितना व्यापक सपोर्ट किया होगा.
मुसलमान और तृणमूल कांग्रेस
मुस्लिम वोटों के सहारे सत्ता की सीढियों पर चढ़ने वाली तमाम पार्टियों का चरित्र एक जैसा होता है. ममता बनर्जी की पार्टी भी इसमें अपवाद नहीं. ममता को भी यह एहसास हुआ होगा कि मुसलमान तो उन्हें खुल कर सपोर्ट करेंगे. इसलिए उसने टिकट बंटवारे में मुस्लिम नुमाइंदगी का ईमानदारी से ख्याल नहीं रखा. तृणमूल को 211 सीटें मिली हैं. इन में सिर्फ 30 मुस्लिम एमएलए बने हैं. प्रतिशत के लिहाज से यह महज 14.2 प्रतिशत होता है. जबकि यह संख्या कम से कम 60 होनी चाहिए. अब जरा गौर कीजिए कि कम्युनिस्ट और कांग्रेस जो बुरी तरह चुनावी मैंदान में हारे, उनके 41-41 प्रतिशत मुस्लिम एमएलए बने. जबकि तृणमूल, जिसने ऐतिहासिक विजय दर्ज की, उसके मुस्लिम एमएलए का प्रतिशत महज 14.2 है.
इस तरह राज्य में कुल 57 मुस्लिम एमएलए बने हैं. जो कुल सीटों का 19.38 प्रतिशत है जबकि उनकी दावेदारी 30 प्रतिशत होनी चाहिए. ममता ने ईमानदारी से टिकट दिया होता तो उसके और मुस्लिम उम्मीदवार जीत कर आते.
सबक
सेक्युलरिज्म के नाम पर सियासत करने वाली पार्टियां आम तौर पर जब सत्ता के मद में होती हैं तो उन्हें मुसलमान या मुस्लिम रिप्रजेंटशन की परवाह नहीं रहती. लेकिन जब उन्हें मुसलमान सबक सिखा देते हैं तब उन्हें मुसलमानों की सियासी हिस्सेदारी का ख्याल आता है. चुनावी राजनीति ने मुसलमानों को अब यह सिखा दिया है कि वह सिर्फ मतदाता नहीं, बल्कि सत्ता में हिस्सेदारी देने वालों को सपोर्ट करेंगे.