१३५ वीं जयंती पर साहित्य सम्मेलन में आयोजित हुआ भव्य कवि–सम्मेलन
पटना“सुंदर सुभूमि भैया भारत के देसबा से मोरे प्राण बसे हिम खोह रे बटोहिया” जैसी प्राण–प्रवाही और मर्म–स्पर्शी रचना के अमर रचयिता बाबू रघुवीर नारायण भोजपुरी और हिंदी के महान कवि हीं नहीं एक वलिदानी देश–भक्त और स्वतंत्रता सेनानी भी थे। ‘बटोहिया–गीत‘से अत्यंत लोकप्रिय हुए इस कवि ने घूम–घूम कर देश में स्वतंत्रता का अलख–जगाया और यह गीत गा–गा कर,संपूर्ण भारत–वासियों को, विशेष कर भोजपुरी प्रदेश को, उसकी गौरवशाली प्राचीन संस्कृति और महानता का स्मरण दिलाया। पूर्वी–धुन पर रचित यह गीत अपने काल में बिहार और उत्तरप्रदेश के स्वतंत्रता–सेनानियों का ‘राष्ट्रीय–गीत‘बन गया था। पूर्वी भारत में आज भी इसकी मान्यता राष्ट्रीय लोक गीत के रूप में है।
यह बातें आज यहाँ साहित्य सम्मेलन में, बाबू रघुवीर नारायण की १३५वीं जयंती पर आयोजित समारोह और कवि–गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए,सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, एक भी महान और लोकप्रिय रचना किसी व्यक्ति को साहित्य–संसार में अमर कर सकती है, यह गीत और बाबू रघुवीर नारायण इसके उदाहरण हैं। आज के कवियों को यह विचार करना चाहिए कि,ख्याति पाने के लिए, “बहुत” लिखना आवश्यक है या ‘मूल्यवान‘लिखना ?
आरंभ में सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने ‘बटोहिया‘गीत गाकर कार्यक्रम का आरंभ किया। उन्होंने कहा कि, स्वतंत्रता–संग्राम में आंदोलन कारियों की ज़ुबान पर विस्मिल की पंक्तियाँ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है” और‘मेरा रंग दे वसंती चोला” जैसे उत्साह भरने वाले गीत होते थे तो भोजपुरी क्षेत्र के आंदोलनकारियों के बीच बाबू रघुवीर नारायण का बटोहिया गीत गूँजता था।
अतिथियों का स्वागत करते हुए, सम्मेलन के कार्यकारी प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने कहा कि,रघुवीर नारायण आध्यात्मिक–दृष्टि रखनेवाले करुण भाव के कवि थे। उन्होंने अग्रंजि, हिंदी और भोजपुरी में अत्यंत मार्मिक गीत लिखे। कम लिखे, पर जो कुछ लिखा उसी से अमर हो गए। अपने जीवन के अंतिम दिनों को उन्होंने एक संन्यासी की तरह जिया।
वरिष्ठ साहित्यकार जियालाल आर्य,प्रो वासुकी नाथ झा,बाबू रघुवीर नारायण की पौत्र–वधु उर्मिला नारायण तथा उनके दूसरे पौत्र प्रताप नारायण ने उनके जीवन से जुड़े महत्त्वपूर्ण प्रसंगों की विस्तार से चर्चा की। इस अवसर पर आयोजित कवि–सम्मेलन का आरंभ कवि राज कुमार प्रेमी की वाणी–वंदना से हुआ। वरिष्ठ कवि मृत्युंजय मिश्र ‘करुणेश‘जीवन के उद्वेग को इन पंक्तियों में व्यक्त किया कि, “ फ़ुर्सत न ज़रा चैन न, आराम न घर में/ बेचैनियाँ वहाँ भी जो होता हूँ सफ़र में/पीने का नयों में नया शौक़ जगा है/ चलते हैं ज़रा और डगमगा के डगर में“। गीत के चर्चित कवि विजय गुंजन ने कहा कि, “अमरित में पोर–पोर टन के डुबोई सी/ सूर्यमुखी लगती है घाटी में सोई सी“।
व्यंग्य और ओज के कवि ओम् प्रकाश पाण्डेय‘प्रकाश‘ का कहना था कि, “देश के दिल पर जहाँ पत्थर चलता है/जाती के वोट पर वहाँ नेता पलता है/ मत करो मज़ाक़ मंदिर–मस्जिद से/ ‘प्रकाश‘ मेरा मुल्क जलता है“। कवयित्री डा शालिनी पाण्डेय ने भोजपुरी में अपनी ग़ज़ल पढ़ी कि, “हमरे गऊँआ के मोर करे मनवा विभोर/ चल चली आज अपने गऊँआ के ओर“। कवि घनश्याम का कहना था कि, “दो दिलों के दरमियाँ दूरी बढ़ाता कौन है?/ हमको आपस में लड़ाकर मुस्कुराता कौन है?हम जहाँ भर में जला देंगे मुहब्बत के चिराग़/ और देखेंगे इन्हें आकर बुझाता कौन है?
कवि बच्चा ठाकुर, राज कुमार प्रेमी, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, प्रवीण कुमार मिश्र, जय प्रकाश पुजारी, सुनील कुमार दूबे, डा सुलक्ष्मी कुमारी, मधु रानी, डा विनय कुमार विष्णुपुरी,डा वीरमणि राय, शालिनी पाण्डेय, नंदिनी प्रनय, डा विजय प्रकाश, दीप नारायण शर्मा ‘दीपक‘, कवि घनश्याम, प्रभात कुमार धवन, सुनील कुमार, अभिलाषा कुमारी, शंकर शरण आर्य, सरस्वती कुमारी, पूनम कुमारी श्रेयसी, अर्जुन प्रसाद सिंह, अविनाश पाण्डेय आदि कवियों ने अपनी कविताएँ पढीं। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन कृष्णरंजन सिंह ने किया।
इस अवसर पर डा नागेश्वर प्रसाद यादव, अंबरीष कांत,श्रीकांत सत्यदर्शी,आनंद मोहन झा, शशि भूषण कुमार, जयंती झा, सुधा मिश्र,रंजना नारायण समेत बड़ी संख्या में प्रबुद्धजन उपस्थित थे।