नौकरशाही डॉट इन की पॉलिटिकल एडिटर अनिता गौतम राजनीति और व्यवसाय के शिकंजे में फंसी शिक्षा व्यस्था की खामियों से पर्दा उठा रही हैं.
कभी शिक्षा सिर्फ ज्ञान अर्जन हुआ करती थी। बदलते समय के साथ इसे रोटी से जोड़ कर देखा जाने लगा। रोटी की जुगत में शिक्षा गुम होने लगी पर आधुनिक युग में इसकी विकृति कुछ इस तरह से उजागर हो रही है कि सीधे सीधे शब्दों में कहा जाये तो शिक्षा का पहले राजनीतिकरण हुआ, और जल्द ही पूरी तरह से व्यवसायीकरण।
राजनीतिकरण का असर यह हुआ कि सरकार के साथ बैठकर शिक्षा की पॉलिसी निर्धारित होने लगी। मनोकुकूल और चाटुकारिता वाले पाठ्यक्रम पढ़ाये जाने लगे। बात यहीं आकर खतम नहीं हुई क्योंकि राजनीति की दिशा का निर्धारण व्यवसाय से होता है अत: जाहिर है शिक्षा का व्यवसायीकरण शुरू हुआ।
गुरुजी या व्यवसायी
अतिश्योक्ति नहीं होगी अगर यह कहा जाये कि राजनीति और व्यवसाय के बीच कराहती शिक्षा का यह संक्रमण काल शुरू हो चुका है। राज्य सरकारें अपने-अपने पाठ्य-पुस्तकों में अपनी मनमर्जी के विचारों और सुझावों के लिए जगह बनाने में लगी है, तो वहीं केन्द्र सरकार की चाटुकारिता की छाप भी स्कूली बच्चों के पाठ्यक्रम में चित्र और पाठ में स्पष्ट देखे जा सकते हैं। तकनीकी जानकारी वाले विषय जो जीवन में आगे चलकर उपयोगी हो सकते हैं, जैसी परिकल्पना आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता को पूरी तरह से भटका रही है। आज के शिक्षक भी गुरुजी की परिकल्पना से दूर अब सिर्फ वयवसायी बन कर रह गये हैं।
शिक्षा जैसे व्यापक कार्यक्रम को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार के साथ-साथ आवाम की महत्वपूर्ण भागीदारी तय होनी चाहिए। व्यवसायिक शिक्षा के नाम पर युवा पीढ़ी को परोसा जाने वाला पाठ्यक्रम उनकी निजी जिन्दगी में कितना महत्व रखता है इस पर भी विचार करने की जरूरत है। आपसी साझीदारी से यह तय करना होगा कि शिक्षा सिर्फ रोटी कमाने के लिए नहीं बनी है। मशीन बनाने वाली शिक्षा इंसान नहीं बना सकती है।
मानवीयता भी बनी व्यापार
सबसे गंभीर विषय है व्यवसायिकता की होड़ में विद्यार्थियों का नैतिक पतन। सेवा और त्याग की भावना से ओत- प्रोत शिक्षा इतिहास बन गयी है। बाजारीकरण की इस अंधी दौड़ में शिक्षा के मूल्य न सिर्फ बदलने लगे हैं बल्कि इनका पूरी तरह व्यसायीकरण हो गया है। खुली बाजार व्यवस्था ने ज्ञानपरक शिक्षा को पूरा का पूरा निगल लिया है। निश्छल प्रेम, मातृत्व, वात्सल्य, सेवा, त्याग, आपसी सहयोग, उपकार, सद्भाव, करुणा और परोपकार जैसे शब्द आधुनिक जीवन शैली से पूरी तरह से गायब हो रहे हैं। व्यवसायिक शिक्षा के नाम पर युवा पीढ़ी नफे नुकसान को जीवन का मापदंड बना रही है। जाहिर है मानवीय गुण और इंसानी मूल्य ढूंढते रह जाओगे, की तर्ज पर लापता हो गए हैं।
सरकार बनाम निजी शिक्षा
सबके लिए शिक्षा सिर्फ एक नारा बन कर रहा गया है। शिक्षा सबके लिए तो हो पर कैसी शिक्षा यह समझने में सभी उलझे हुए हैं। इन्हीं सारी उलझनों को सुलझाने के नाम पर महंगे निजी विद्यालय अभिभावकों को लुभाने में सफल हो रहे हैं। ऐसे विद्यालयों में बच्चों का दाखिला सामाजिक प्रतिष्ठा बन चुका है। रसूख वालों की पहचान होती है, इन विद्यालयों में बच्चों का पढ़ना। सरकारी विद्यालय सिर्फ राजनीतिक ऐजेंडे तक ही सीमित हो रहे हैं। इन विद्यालयों में सरकारी योजनाओं की सीधी सीधी तस्वीर दिखाई जाती है। इनके शिक्षा के स्तर की गुणवत्ता का कोई पैमाना नहीं होता है और न ही स्तर को सुधारने की कोई पहल। जाहिर है ऐसी परिस्थितियों में निजि विद्यालयों के साथ साथ निजी कोचिंग (शिक्षण) संस्थानों के पौ बारह है।
सरकारी विद्यालयों की स्थिति और शिक्षा के महत्व का ज्ञान कराया जाना इनके लिए किसी विज्ञापन से कम काम नहीं करता है। शिक्षा के प्रति जागरुकता और उसे पाने की ललक अभिभावकों को विद्यालय में दाखिले के बाद इनकी दहलीज पर ज्ञान के लिए खींच लाते हैं। इस तरह शिक्षा के नाम पर जो शुद्ध व्यवसाय यहां दिखता है वह सर्वाधिक चिन्ता का विषय है। सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिए खुली इनकी दुकान में हर तरह के कोर्स के लिए शिक्षक उपलब्ध हो जाते हैं पर सरकारी विद्यालयों में तमाम प्रतियोगिता के बाद भी कितने सारे विषयों के लिए अर्हता प्राप्त अवेदन तक नहीं दिखते है और कई विषय यूं ही बिना शिक्षक के चलते रहते हैं। इस तरह यह समझना कठिन नहीं है कि विद्यलयों का भी शिक्षा के साथ सीधा रिश्ता नहीं के बराबर रह गया है।
बहरहाल निजी विद्यालयों की नकल करने के प्रयास में रत सरकारी शिक्षण संस्थान अपनी पहचान भूल गये हैं। प्रत्येक क्षेत्र में कल्याणकारी योजनाएं बनाई और उन पर अमल करने की कोशिश हो रही है परन्तु दुर्भाग्य से सरकारी स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में कोई मॉडल स्थापित नहीं किया जा रहा है। बड़ी बड़ी राशियां और योजनाएं अमल में आये बगैर दम तोड़ रहीं है।
राजनेताओं की इच्छाशक्ति की कमी और एजेंडे में महत्व नहीं देने के कारण ही देश में शिक्षा का यह हश्र हो रहा है। आजादी के इतने सालों बाद भी शिक्षा आज निजीकरण की गुलाम है जबकि स्थिति यह होनी चाहिए थी कि सरकारी शिक्षा और शिक्षकों के स्तर को निजी विद्यालय अपना मापडंड बनाते.