बिहार की पत्रकारिता खासकर पटना की पत्रकारिता का सामाजिक स्वरूप मूलत: राजपूत व ब्राह्मण आधिपत्य वाला रहा है। जबकि भूमिहार व कायस्थ की भूमिका सहयोगी की रही है। 1990 तक बिहार की पूरी पत्रकारिता इन्हीं चार जातियों के आसपास घुमती रही। संपादक जैसे पदों पर ब्राह्मणों का एकछत्र राज था। यदाकदा छोड़कर। आयावर्त और आज दो ऐसे अखबार थे, जिनमें ब्राह्मणों का वर्चस्व था। आज में भूमिहारों का प्रवेश लगभग वर्जित था। आयावर्त्त मैथिल ब्राह्मणों का ट्रेनिंग सेंटर था।
वीरेंद्र यादव
नये स्पेस ने पिछड़ों को दी जगह
1985 के बाद प्रिंट मीडिया में व्यापक बदलाव आया। हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, प्रभात खबर और जागरण जैसे अखबारों के पटना के बाजार में उतरने के बाद स्पर्धा बढ़ी। रोजगार के अवसर भी बढ़े। नये स्पेस को भरने के लिए पिछड़ी जातियों के पत्रकारों का प्रवेश शुरू हुआ। 1990 में लालू यादव की सरकार बनने के बाद सत्ता का सामाजिक समीकरण बदला। इसका असर मीडिया में भी दिखने लगा। फिर पिछड़ी जाति के युवाओं की बढ़ी आकांक्षाओं ने भी उन्हें मीडिया में जाने को प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे सेंकेंड लाइन में पिछड़ी जाति के पत्रकारों की बड़ी जमात दिखने लगी। प्रभात खबर ने पिछड़ी जातियों को पहली बार बड़ी तादाद में जगह दी और उन्हें प्रेरित भी किया। इलेक्ट्रानिक मीडिया के फैलाव ने भी पिछड़ों को बड़ा स्पेस उपलब्ध कराया। पिछड़ी जातियों के मीडिया में बढ़ते प्रभाव और इन जातियों में तैयार हो रहा पाठक वर्ग ने अखबारी बनियों और संपादकों को भी खबरों के स्तर पर बड़ी आबादी को जगह देने पर विवश किया।
राजपूत व झा का वर्चस्व
वर्तमान में मीडिया के सामाजिक स्वरूप को देंखे तो एक नया ‘राजा’ तैयार हो गया है। राजा यानी राजपूत और झा (आर जे)। बड़े परिप्रेक्ष्य में देंखे तो वर्तमान में प्रिंट मीडिया में राजपूतों का आधिपत्य हो गया है तो इलेक्ट्रानिक मीडिया में झा-झाओं का। एक अखबार तो मीडिया का ‘ठाकुरबाड़ी’ ही बन गया है। पिछड़ी जातियों में यादव, कुर्मी, कुशवाहा और वैश्य जातियों के पत्रकार बड़ी संख्या में दिख रहे हैं। जबकि पिछड़ों की अन्य जातियों की संख्या नगण्य है। मुसलमान पत्रकार उर्दू अखबारों की दुनिया से बाहर निकल कर हिंदी और अंग्रेजी अखबारों में आ रहे हैं। इनकी संख्या भी काफी कम है। राजनीति के तरह मीडिया से कायस्थ गायब होते जा रहे हैं। भूमिहार नयी जमीन की तलाश में हैं।
हर खिलाड़ी अकेला
राजनीतिक सत्ता के समान मीडिया की सत्ता का खेल भी जातियों के आसपास ही दिखती है। लेकिन राजनीति के समान मीडिया में संख्या बल ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं होता है। मीडिया के खेल का टुल्स भी अलग होता है। सामूहिकता के बाद भी मीडिया में हर खिलाड़ी अकेला होता है और उसकी सफलता या विफलता की कमेंट्री भी अलग-अलग होती है।
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