सांस्कृतिक व धार्मिक स्तर पर रक्षाबंधन के महत्वों से इतर अमरदीप झा गौतम इसके कुछ वैज्ञानिक व दार्शनिक पहलुओं की व्याख्या कर रहे हैं.
जिसको हम इस संस्कृति में आदमी कहते हैं. इसके अस्तित्व में बने रहने के लिये दो प्रमुख तत्व हैं, एक उसका स्थूल शरीर, जो हम देखते हैं,जिसका निर्माण स्त्री (माता) के रज और पुरुष (पिता) के वीर्य से हुआ है. दूसरा उसका सूक्ष्म शरीर,जो विद्युत-चुंबकीय अणुओं की समष्टि है,जो इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड के कण-कण में विद्यमान है. और, इन दोनों सत्ता को चालित कर रही सर्व-व्याप्त ऊर्जा,जिसे आत्मा कहते हैं.
स्थूल-शरीर का जिन चीजों से निर्माण हुआ है,उससे वह मुक्त नहीं हो सकता,जो है काम-शक्ति (सेक्सुल-एनर्जी). और, सूक्ष्म-शरीर अपनी विद्युत-चुंबकीय विकिरणों को प्रवाहित करने की क्षमता के साथ प्रकृति से जुड़ा है,जिसका अनुभव हमें हर्ष,दुख,आनंद या भय आदि अनुभवों से मिलता है. कोई पुरुष-तत्व (पिता,भाई,चाचा,मामा,पुरूष-मित्र या कोई पुरूष) किसी स्त्री-तत्व (माँ,बहन,चाची,मामी,महिला-मित्र या कोई स्त्री) के पास या कोई स्त्री-तत्व किसी पुरुष-तत्व के पास स्थिर,प्रेम-बहाव या प्राकृतिक लगाव का अनुभव करते हैं.
यही कारण है कि माँ का बेटे के साथ और पिता का बेटी के साथ मजबूत भावनात्मक सम्बंध देखने को मिलता है. इसके मूल में पुरुष-तत्व से स्त्री-तत्व तक विद्युत-चुंबकीय विकिरणों का बहाव है. यह बहाव जितना स्थिर,साम्य और त्वरा-रहित होता जाता है,आदमी उतना ही स्थिर,सौम्य और सकारात्मक होता जाता है. भारतीय-संस्कृति में रक्षाबंधन,भाई-दूज (भैया-दूज),जूल-शीतल (मैथिल-बंग संस्कृति) आदि पर्वों को जोड़कर भाई और बहन के बीच एक पवित्र मैत्रीपूर्ण संबंध को स्थापित करके उनके ऊर्जा-प्रवाह को निर्देशित (डायरेक्टिव) और संवर्धित(डेवलप्ड) किया गया. क्योंकि, मौलिक रुप से दोनों प्राकृतिक मित्र हैं और इन दोनों के मध्य लगाव जितना प्रगाढ़ होता है,उतनी आसानी से अपनी काम-ऊर्जा को उद्दातीकरण(सबलिमेसन) की प्रक्रिया से गुजार पाते हैं,जिससे इन्हें जीवन में मदद मिलती है.
आज के दौर में जितनी हिंसा, प्रतिहिंसा या लैंगिक (जेंडर) मान-अपमान दिखता है,उसका कारण स्थूल-शरीर के उत्पत्ति-कारक अवयवों की बौद्धिक-अस्वीकार्यता और सूक्ष्म-शरीर का अनियंत्रित ऊर्जा-प्रवाह है. ऐसे में रक्षाबंधन जैसे शुभ-उत्सवों को और भी ज्यादा पल्लवित,पुष्पित करके पुरुष-तत्व और स्त्रैण आधारों को मजबूत करके महामानव का प्रादुर्भाव संभव हो सकता है.
हम अपनी संस्कृति के वैज्ञानिक-पक्ष को समझ पायें और मानव-सभ्यता के वर्तमान काल को दिशा देने में समर्थ हों. प्रणाम और स्नेह…
लेखक एलिट इन्स्टिच्युट,पटना के निदेशक हैं