1977 में गैर सवर्णवाद के उभार के प्रतीक लालू जब 1990 में सत्ता संभालते हैं तो यह सवर्ण वचर्स्व को चुनौती थी और जब 2005 में वह हारे तो यह लालूवाद की जीत थी.
वीरेंद्र यादव
चारा घोटाले में दोषी ठहराए गए लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक भविष्य को लेकर अनेक तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। लेकिन उनका राजनीतिक अतीत निर्विवाद है। उनका छात्र जीवन संघर्षों से भरा रहा है।
पटना विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति पर से भूमिहारों का कब्जा हटाने में उनका सबसे महत्वपूर्ण हाथ था। लालू यादव समाजवादी आंदोलन के कारण पिछड़ी जातियों के छात्रों में अपनी पैठ बनाने में सफल साबित हुए थे और पटना विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष भी चुने गए.
1990 में जब जनता दल बड़ी पार्टी के रूप में उभरा तो सांसद रहते हुए उन्हें विधायक दल का नेता चुना गया और बिहार की कमान उनके हाथों में सौंप दी गयी। वह बिहार की राजनीति में आंदोलन के समान थे। वे आरक्षण के मुद्दे पर खुलकर सामने आए।
वह गैरसवर्णों के सामाजिक सशक्तिकरण के पक्षधर थे और इसी अभियान के तहत पटना में जातीय रैली का रैला लग गया है। इस कारण उन समाजों से भी नेता उभरे और वही नेता अपनी-अपनी जातियों के ब्रांड बन गए। लालू यादव ऐसे लोगों को विधान मंडल व संसद में भेज कर उन जातियों का सम्मान बढ़ाया और सामाजिक व्यवस्था में उनको हिस्सेदारी दिलवायी।
2005 चुनाव में लालू यादव की हार उनकी सबसे बड़ी जीत थी। जिन जातियों के सशक्तीकरण की बात वह कर रहे थे, वे जातियां इतनी सक्षम हो गयीं थी कि उन्होंने अपना राजनीतिक विकल्प चुना और लालू यादव की जगह नीतीश कुमार को अपना नेता चुन लिया। नीतीश कुमार का चुना जाना लालू यादव के पिछड़ी व दलित जातियों के सशक्तीकरण अभियान व आंदोलन की परिणति थी और अपने अभियान में लालू यादव पूरी तरह सफल रहे थे।
उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 1977 एकमात्र छात्र नेता लालू यादव को छपरा से जनता पार्टी का टिकट मिला था और विजयी हुए थे। कर्पूरी ठाकुर के देहांत के बाद उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनने का मौका मिला।
लेखक फारवर्ड प्रेस के बिहार ब्यूरो चीफ हैं
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