भारत बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता। लोकतंत्र बिना राजनीति के नहीं चल सकता। राजनीति बिना नेताओं के नहीं चल सकती। नेता बिना जनता के नहीं चल सकते। यानि जनता ही जनार्दन।
लोकतंत्र में जनता ही हाशिए पर है पर देश के हर नेता को वह जानती है या जानना चाहती है। अपने इस कालम में हम देश-प्रदेश के मौजूदा किसी एक बड़े नेता के बारे में खास जानकारी देंगे।
संयोग और दुर्योग, सुख और दुख उसके साथ -साथ हैं। वो दुनिया की सबसे ताकतवर महिला है। संसार की 100 सबसे मजबूत शख्सियतों में से एक है। गांधी खानदान की है। इंदिरा गांधी जैसी मजबूत हौसलों की महिला की बहू है। देश में कंप्यूटर क्रांति के जनक व पूर्व प्रधानमंत्री राजीव की पत्नी और चर्चित राहुल व प्रियंका की मां है। इतना ही नहीं सबसे पुरानी उस पार्टी की कमान भी उसके हाथ में है जिसे किसी जमाने में सरदार पटेल जैसी हस्तियां चलाया करती थी। आज की तारीख में इस दल में एक से दस नंबर तक कोई दूसरा नहीं है।
वो सत्तारूढ़ यूपीए (?) की चेयरपर्सन भी हैं। ऐसा शख्स जो चाहे वो कर सकता है। सब मानते हैं और कहते आ रहे हैं कि नौ साल से देश पर राज 10 जनपथ से ही चल रहा है। इसके बावजूद इसे रणनीति कहें, मजबूरी कहें, नाम के संग जुड़ा अपशकुन कहें, या फिर ग्रहों का फेर- नसीब का खेला वे उस ताज से कल भी दूर थी,आज भी हैं और शायद कल भी रहेंगी जिसे पाने की ख्वाहिश हर नेता में होती है। जिसे इस राह की आखिरी चाह माना जाता है। यानि प्रधानमंत्री पद। वो पद जो ईमानदार चेहरे के पास होने के बावजूद पूरी सरकार और पार्टी दागी नजर आती है। ऐसे समय में राजनीति के गलियारों में ये सवाल तो तैरते ही हैं कि आखिर संकट में ये लीडर फ्रंट से क्यों नहीं लड़ती?
जो पार्टी गांधी खानदान के आगे कुछ सोचती ही ना हो उस पार्टी की मुखिया होने के नाते नौ साल पहले भी वो इस पद पर बैठ सकती थी। जब चाहती हासिल कर सकती थी। फिर इससे दूरी क्यों?पार्टी नेता चाहे जो कहें पर हकीकत यही है कि शिखर पर बैठे ढेरों चेहरों के साथ संयोग व दुर्योग साथ-साथ चलते हैं। जिसकी चाह नहीं होती वह मिलता जाता है, जिसकी चाह वो दूर। यह सुपर लेडी भी उनमें से एक है।
नसीब तथा समय की धारा इटली के एक छोटे गांव से बहाकर उस तख्तो ताज तक ले आई जहां तक आने की न कोई चाह थी और न कोशिश। पर आना पड़ा। हिंदुस्तान नहीं आना चाहती था-आना पड़ा। राजनीति में नहीं आना चाहती थी-आना पड़ा। अध्यक्ष पद नहीं चाहती थी-लेना पड़ा। प्रधानमंत्री पद की ख्वाहिश नहीं थी- मिलते-मिलते रह गया। हां जो चाहा था वो हो न सका। गृहणी की जिंदगी गुजारना, पति को राजनीति से दूर रखना,बच्चों को दुखों से बचाए रखना,अपनों-परायों के वार से आशियाने को बचाने की ख्वाहिश पूरी ना हो सकी। पूरी तरह हिंदुस्तान की होने पर भी विदेशी कहे जाने का मर्म कहीं ना कहीं तो है। हां तारीफ करनी होगी कि खामोशी के हथियार ने इस वार को थोथरा कर दिया है।
शक नहीं कि जीवन ने इतने थपेड़े अगर किसी को भी दिए होते तो शायद वो शख्स बिखर चुका होता। पर इस महिला के जीवट पर अब विरोधियों को भी शक नहीं। हां राजनीतिक कौशल का जहां तक सवाल है तो इस मामले में हमेशा सवालिया आंखें घूरती रहती हैं। 2009 में ईमानदार पीएम के नाम पर सत्ता हासिल करने वाली पार्टी आज बेईमानी के कारण चौतरफा आफत झेल रही है। खुद दामाद के करप्शन के किस्से गूंज रहे हैं। पार्टी के चेहरे नाक कटवाने से बाज नहीं आ रहे हैं। सहयोगी दामन झटक कर जा रहे हैं। चार साल में वो सब इस पार्टी को झेलना पड़ रहा है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। ऐसे दौर में अगले चुनाव तक सरकार को बचाए रखना, पार्टी को एकजुट रखना और बेड़ा पार कराना इस शख्सियत के सामने सबसे बड़ा सवाल है। बेटे को भले ही जिम्मेदारी सौंप दी गई हो लेकिन सफलता का श्रेय और असफलता का ठींकरा 10 जनपथ पर फूटेगा इसमें किसी को कोई संदेह नहीं। राजनीतिक कलाकौशल और दांव-पैंच की परीक्षा का दौर चल रहा है। विपरीत हालात और राजनीति के सारे महारथी सामने हैं। ऐसी जंग में वो उस फौज को लेकर मोरचे पर है जिसके ज्यादातर सिपहसलार बूढ़े हो चुके हैं, दागी हो चुके हैं,अपने छोडक़र जा चुके हैं। इस महिला को लडऩा भी है और अपनी फौज में विश्वास भी पैदा करना है। ये भी सच है कि गुजरे कल में कांग्रेस उसके बिना चल सकती थी पर आज और कल तो कतई नहीं। ऐसे सख्त वक्त में तख्त बचाना और फिर पाना आसमान से तारे तोडऩे के बराबर है। अगर ऐसा हुआ तो यकीन मानिए राजनीति में विरोधी भी मान लेंगे कि वो अपनी सास की असली बहू है। मौजूदा घटनाक्रम ने इसके संकेत देने शुरू कर दिए हैं।
सफरनामा
0-इटली का एक छोटा सा गांव लुसियाना- रोमन कैथोलिक परिवार में 9 दिसंबर 1946 को जन्म। पिता बिल्डर और फौजी। 1983 में निधन। मां और दो बहनें ओरबासानो निवासी। यहीं पर सोनिया की कैथोलिक स्कूल में पढ़ाई। 1964 में कैंब्रिज के एक स्कूल में पढ़ाई के लिए इंग्लैंड में। वेटर का काम। रेस्टोरेंट में राजीव गांधी से मुलाकात। 1968 में शादी।
0-1970 में राहुल,1972 में प्रियंका का जन्म। राजनीति से दूरी। राजीव पायलट-सोनिया पर घर का जिम्मा। 23 जून 1980 को संजय की मौत। मां इंदिरा गांधी का दबाव-1982 में राजीव का राजनीति में प्रवेश। सोनिया का बस परिवार पर ध्यान। 1983 में हिंदुस्तान की नागरिकता। 1984 में श्रीमती इंदिरा गाधी की हत्या। राजीव गांधी पी एम बने।
0– पहली बार पब्लिक लाइफ। राज्यों में पति संग दौरों पर। अमेठी सीट पर राजीव के सामने मेनका। सोनिया प्रचार में शामिल। जीत। राजीव पीएम। पांच साल तक राज। बोफोर्स का जिन्न बाहर। इटली के उद्योगपति और सोनिया के कथित परिचित क्वात्रोची घेरे में। राजीव-सोनिया की छवि पर दाग। आम चुनाव में लिट्टे द्वारा राजीव की हत्या।
0-पार्टी अध्यक्ष बनने से इंकार। राजनीति से दूर। राव नए पीएम। पार्टी पतन की ओर। 1996 में सत्ता से बाहर। माधवराव सिंधिया, राजेश पायलट, ममता बनर्जी, मूपनार, चिदंबरम और जयंती द्वारा खुलेआम सीताराम केसरी के खिलाफ विद्रोह। 97 में पार्टी की प्राथमिक सदस्यता। 62 दिन बाद अध्यक्ष। 97 में बेल्लारी और अमेठी से सांसदी चुनाव।
0-दोनों सीटों से जीत। बेल्लारी में सुषमा स्वराज की करारी हार। 99 में विपक्ष की नेता। विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर शरद पवार की बगावत। पार्टी छोड़ी। 2003 में वाजपेयी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव। 2004 में राजग का इंडिया शाइनिंग नारा ध्वस्त। कांग्रेस सबसे बड़ा दल। यूपीए के बैनर तले 15 दलों का आगमन। वामदलों का बाहर से समर्थन।
0-16 मई को यूपीए की निर्विवाद नेता। प्रधानमंत्री बनना तय। सुषमा स्वराज ने विदेशी मूल का मसला फिर उठाया। सिर मुंडाने और आजीवन जमीन पर सोने की धमकी। हंगामा। 18 मई को पद ठुकराने और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का एलान। फेवर में लहर। कप्तानी में आंध्र प्रदेश, हरियाणा और आसाम में सत्ता में वापसी।
0-उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, बिहार और गुजरात जैसे राज्यों में पार्टी की हार। अब तक यूपीए की चेयरपर्सन। 2004 में बेटा राहुल अमेठी से सांसद। प्रियंका का राजनीति में आने से इंकार। फायदे के पद पर रहने का आरोप। सांसदी छोड़ी। रायबरेली से फिर चार लाख से ज्यादा वोटों से जीत। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और सूचना के अधिकार का हक।
0– आजादी के बाद कांग्रेस की पहली और अब तक की पांचवी विदेशी पार्टी अध्यक्ष। राजीव पर दो किताबें-राजीव और राजीव की दुनिया। नेहरू-इंदिरा पत्रों का संपादन। यूपीए की दूसरी पारी में पार्टी और सरकार की छवि पर घपले-घोटालों के दाग। दो साल पहले बीमारी। दामाद पर घपलों के आरोप। कर्नाटक की जीत से थोड़ी राहत।
देशपाल सिंह पंवार वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक चिंतक हैं