बिहार विधान परिषद के सभापति अवधेश नारायण सिंह। सभापति के रूप में उनका कार्यकाल 8 मई को समाप्त हो रहा है। वजह है कि परिषद की उनकी वर्तमान सदस्यता 8 मई समाप्त हो रहा है। किसी भी सदन के सभापति या अध्यक्ष का कोई कार्यकाल निर्धारित नहीं होता है। उनकी पदावधि समाप्त होने के तीन तरीके हैं। पहला है कि वे इस्तीफा दे दें। दूसरा है कि उनके खिलाफ अविश्वास का प्रस्ताव लाकर पद से हटा दिया जाए और तीसरा है सदन की वर्तमान सदस्यता समाप्त होने की तिथि। बिहार में अभी तक किसी अध्यक्ष या सभापति ने न इस्तीफा दिया है और न किसी अध्यक्ष को अविश्वास प्रस्ताव लाकर हटाया गया है। सभी अध्यक्ष या सभापति सदन की सदस्यता समाप्ति के साथ पदमुक्त होते रहे हैं। सदन में कार्यवाहक सभापति की भी परंपरा रही है।
वीरेंद्र यादव
एनडीए सरकार के दौर में अवधेश नारायण सिंह जदयू और भाजपा के समझौते के तहत भाजपा कोटे से सभापति बने थे। 2013 में भाजपा के सरकार से अलग होने के बाद श्री सिंह नीतीश कुमार के ‘कृपापात्र’ बने रहे और उनकी कुर्सी सुरक्षित रही। विधान परिषद चुनाव में भी नीतीश कुमार ने अवधेश सिंह को पूरा समर्थन किया और जीतवाया भी। चुनाव जीतने के बाद अवधेश सिंह ने इस बात को सार्वजनिक रूप से स्वीकार भी किया।
विकल्पों पर मंथन
अवधेश नारायण सिंह अब इससे आगे की रणनीति पर काम कर रहे हैं। उनकी दो कोशिश है। पहली कोशिश है कि सर्वसम्मति से उनके नाम पर सहमति बन जाये। दूसरी कोशिश है कि उन्हें कार्यवाहक सभापति बना दिया जाए। कार्यवाहक सभापति को भी सभापति के समान वेतन, भत्ता और सुविधाएं मिलती हैं। अवधेश सिंह के नाम पर सर्वसम्मति की संभावना कम है। क्योंकि विधान सभा में अध्यक्ष जदयू के हैं तो परिषद में सभापति राजद या कांग्रेस के होंगे। इस पद पर भाजपा उम्मीदवार का प्रस्ताव देकर नीतीश कुमार महागठबंधन में ‘रार’ करने को तैयार नहीं होंगे।
दो माह का इंतजार
इसके विकल्प के रूप में अवधेश सिंह की कोशिश होगी कि उन्हें कार्यवाहक सभापति बना दिया जाए। यह विडंबना है कि परिषद में कांग्रेस या राजद के पास ‘सभापति के लायक’ कोई चेहरा भी नहीं है। वैसी स्थिति में कार्यवाहक सभापति के रूप में अवधेश सिंह के बनाने पर महागठबंधन में किसी को आपत्ति भी नहीं होगी। फिर अवधेश नारायण सिंह की ‘नीतीश निष्ठा’ का पुरस्कार भी उन्हें मिल सकता है। इसके लिए अभी दो महीने का इंतजार करना होगा।