उत्तर प्रदेश की नौकरशाही पिछले कुछ दशकों में काफी बदल गयी है. अब उनके लिए संविधान से ज्यादा राजनीतिक दल महत्वपूर्ण हो गये हैं.
अतुल चौरसिया
नौकरशाही के बारे में यह धारणा बन गई है कि या तो वे नेताओं की चरणवंदना करते हैं या उन्हें करनी होगी या फिर निलंबन या स्थानांतरण के रूप में ईमानदारी की कीमत चुकानी पड़ेगी. हाल के ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब अधिकारी सरेआम नेताओं के पैर छूते हुए दिखे. अशोक खेमका, संजीव चतुर्वेदी, दुर्गा नागपाल जैसे कुछेक अधिकारियों ने अगर कुछ प्रतिरोध का साहस किया भी तो उनका हश्र सबके सामने है. उत्तर प्रदेश में तो नौकरशाही की हालत और बदतर है जहां शीर्ष नौकरशाह सरकार के लिए प्रवक्ता तक की भूमिका निभाते दिख चुके हैं. पिछली मायावती सरकार के दौरान राज्यमंत्री का ओहदा पाए बसपा के एक वरिष्ठ नेता जब एक नाबालिग लड़की के यौन शोषण के मामले में चौतरफा घिर गए तो सरकार ने दो बड़े नौकरशाहों को उनके बचाव के लिए उतार दिया था. राज्य के तत्कालीन प्रमुख सचिव (गृह) कुंवर फतेह बहादुर सिंह और कैबिनेट सचिव शशांक शेखर ने बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके मायावती सरकार का बचाव किया.
वरिष्ठ भाजपा नेता हृदय नारायण दीक्षित कहते हैं, ‘प्रशासनिक व्यवस्था के अधिकारी अपनी असहमति का अधिकार खो बैठे हैं. पहले नेताओं और नौकरशाहों के बीच एक स्पष्ट सीमा रेखा खिंची हुई थी. नेता नीतियां बनाते थे.नौकरशाह उसमें सही-गलत का सुझाव देते थे. फिर उसे लागू करते थे. आज उत्तर प्रदेश में वह सीमा रेखा मिट चुकी है.’
उत्तर प्रदेश में आज पार्टियों के प्रति नौकरशाहों की स्वामिभक्ति साफ दिखती है और इसके आधार पर उनका बंटवारा भी इतना साफ है कि यहां सरकारें बदलने के साथ ही अधिकारियों की बनती और बिगड़ती किस्मत की भविष्यवाणी लगभग 99 प्रतिशत सटीकता के साथ की जा सकती है. नेतराम, बृजलाल, कुंवर फतेह बहादुर, नवनीत सहगल, वीएस पांडेय जैसे अधिकारियों को मायावती और बसपा का करीबी माना जाता है. आज इनमें से ज्यादातर अधिकारी महत्वहीन नियुक्तियों पर अज्ञातवास काट रहे हैं.
इसके विपरीत अनीता सिंह, सुभाष चंद्र, अनुराग यादव, जावेद उस्मानी, नवनीत सिकेरा जैसे तमाम अधिकारी जो पिछली बसपा सरकार के कार्यकाल में गुमनामी की जिंदगी काट रहे थे, आज वे प्रदेश के सबसे ताकतवर नौकरशाह हैं. अधिकारियों का पार्टीगत आधार पर इतना स्पष्ट बंटवारा शायद ही कहीं देखने को मिले.
नही रहा स्टील फ्रेम
जिस नौकरशाही की कल्पना संवैधानिक व्यवस्था के स्टील फ्रेम के रूप में की गई थी वह स्टील फ्रेम उत्तर प्रदेश में जंग खाकर भुरभुरा हो चला है. इसके कई कारण हैं. निजी हित, राजनीतिक महत्वाकांक्षा, भ्रष्टाचार, रिटायरमेंट के बाद का जुगाड़, क्षेत्रीय पार्टियों का उदय, गठबंधन की राजनीति, नौकरशाहों की अपनी अयोग्यता जैसे कारणों ने मिलकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहां नौकरशाह संविधान से ज्यादा अपनी पार्टीगत निष्ठा के चलते मशहूर हो गए हैं.
प्रदेश की नौकरशाही के भटकाव की यह स्थिति हाल फिलहाल की घटना नहीं है. इसकी जड़ें 1970-80 के दशक में चली जाती हैं. वरिष्ठ पत्रकार और समाजवादी चिंतक के विक्रम राव बताते हैं, ‘उस दौरान इंदिरा गांधी ने लगभग सभी संस्थानों की बांह मरोड़नी शुरू की थी. नौकरशाही भी उनमें से एक थी. उन्हीं की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में कमलापति त्रिपाठी ने अपने निष्ठावान ब्राह्मण अधिकारियों को प्रश्रय देना शुरू कर दिया था. हालांकि तब तक स्थितियां इतनी बुरी नहीं थीं. पसंद-नापसंद के अधिकारी होते थे, लेकिन किसी को ग्राउंड कर देने या सजा देने की शुरुआत नहीं हुई थी.’
1989 के बाद बदले हालात
हालत 1989 के बाद ज्यादा बिगड़े. यह साल कुछ कारणों से बहुत महत्वपूर्ण है. मुलायम सिंह यादव पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री इसी साल बने थे. यह वही समय भी था जब देश में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू हुई थीं. इसके बाद से ही उत्तर प्रदेश के राजनीतिक स्वरूप में बहुत बड़ा बदलाव हुआ. इस बदलाव और इसके छोटे-छोटे नतीजों की पैमाइश से हम उत्तर प्रदेश की नौकरशाही की मौजूदा दुर्दशा का एक खाका खींच सकते हैं.
साभार तहलका