लेखक-पत्रकार संजय कुमार की पुस्तक, ‘मीडिया : महिला, जाति और जुगाड़’ पर छपने से पहले ही हंगामा खड़ा हो गया है. श्री कुमार इसके पूर्व ‘मीडिया में दलित ढूंढ़ते रह जाओगे’ पुस्तक से खासे चर्चे में रहे. आखिर संजय ने अपनी पुस्तक में क्या लिखा है वह खुद नौकरशाही डॉट कॉम को बता रहे हैं.
आपने इस पुस्तक में मीडिया को निशाने पर लिया है. आम तौर पर मीडिया के निशाने पर समाज होता है
मीडिया : महिला, जाति और जुगाड़’, पुस्तक एक आइना है जो मीडिया की तस्वीर को दिखाने की एक कोशिश है। किस तरह से पत्रकारिता, मिशन से व्यवसाय और फिर सत्ता की गोद में बैठ गयी,सब जानते हैं। सिद्धांतों को ताक पर रख जनता की भावनाओं से खुलेआम खेलने का काम जारी है। जनता का इस्तेमाल करने वाला मीडिया का आज जनता भी इस्तेमाल करने लगी है। सरकारी और गैर सरकारीहर जगह वर्जनायें टूट रही हैं। दूसरों पर हमला बोलने वाले मीडिया पर भी हमले हुए, बल्कि जारी है। ताकतवर होते मीडिया पर जातिवादी होने, औरतखोर होने और जुगाड़ संस्कृति को हवा देने का आरोप हाल के कई घटनाओं ने प्रमाणित किया है।
मीडिया द्वार महिलाओ के नजरिये पर आपका क्या आकलन है?
मीडिया पर जाति प्रेम के साथ-साथ महिला प्रेमी होने का आरोप लगता रहा है। मीडिया के अंदर महिलाओं के साथ होने वाला व्यवहार चौंकाता है। मीडिया में नौकरी देने या ब्रेक देने के नाम पर यौन शोषण की कई घटनाएं बदनुमा धब्बे की तरह हैं। सोशल मीडिया और वेब मीडिया पर आने वाली ऐसी खबरें मीडिया के चरित्र पर सवाल उठाती है।
मीडिया में दलित पर भी आपने पुस्तक लिखी थी. इसकी प्रेरणा कैसे आयी?
भारतीय मीडिया कितना जातिवादी है, इसका खुलासा मीडिया के राष्ट्रीय सर्वे से साफ हो चुका है। 90 प्रतिशत से भी ज्यादा द्विजों के मीडिया पर काबिज होने के सर्वे ने भूचाल ला दिया था। भारतीय मीडिया हिन्दू मीडिया के रूप में जाने जाना लगा। मीडिया पर काबिज द्विज तिलमिला उठे और योग्यता को सामने खड़ा कर गाल बजाने लगे।
दलित- पिछड़े अल्पसंख्यकों की जो हालत मीडिया में है वह ऐसा क्यों है?
भारतीय मीडिया में दलित-पिछड़े-अल्पसंख्यकों की भागीदारी नहीं के बराबर होने के पीछे उन्हें एक साजिश के तहत मीडिया में घुसने नहीं देने की द्विज मानसिकता को दोषी करार दिया गया। निजी मीडिया की तरह ही सरकारी मीडिया में भी इनकी भागीदारी नहीं के बराबर दिखती है। हालांकि आरक्षण के आधार पर यहां दस से बीस प्रतिशत दलित-पिछड़े दिख जाते हैं। दलितों के मीडिया में प्रवेश को लेकर सवाल उठते रहे हैं। दलित मीडिया एडवोकेसी को लेकर आंदोलन चल रहा है। हालांकि, गोलबंदी के बावजूद बात बनती नहीं दिखती है। पूरे मामले पर नजर दौड़ायी जाये तो मामला साफ दिखता है, मीडिया का जातिवादी होना। भारतीय मीडिया पर घोर जातिवादी होने के आरोपों को सर्वे ने प्रमाणित किया है। द्विज संपादक/मालिक अपने संस्थान में अपनी ही जाति के लोगों को मौका देते हैं। यही वजह है कि दलित-पिछड़े अवसर पाने से वंचित हो जाते हैं। अगर कोई आ भी जाये तो उसकी जाति जानने के बाद उसका उत्पीड़न व मानसिक शोषण शुरू हो जाता है और अंत में परेशान एवं थक-हार कर दलित-पिछड़ा पत्रकार मीडिया संस्थान को छोड़ देता है।
आपकी आने वाली पुस्तक का नाम ‘मीडियाः महिला, जाति और जुगाड़’ है. इसमें जुगाड़ शब्द की व्याख्या कैसे करना चाहेंगे ?
भारतीय जीवन में जुगाड़ एक ऐसा शब्द है जिससे हर कोई वाकिफ है। इस शब्द से मीडिया भी अछूता नहीं है। इसका प्रभाव यहां भी देखा जाता है। जुगाड़ यानी जान-पहचान या संबंध जोड़ कर मीडिया में घुसपैठ। इससे योग्यता व अयोग्यता का सवाल खड़ा होता है। जुगाड़ के राजपथ पर योग्यता और अषेग्यता के पथ्य पीछे छूट जाते हैं।
इस पुस्तक में महिला, जाति और जुगाड़ के अलावा और क्या है?
मीडियाः महिला, जाति और जुगाड़ के अलावा भी कई पहलू है। भ्रष्टाचार ने भी मीडिया को अपने कब्जे में ले रखा है तो वहीं, खुद पत्रकारों के साथ मीडिया हाउस में शोषण का खेल होता है। दूसरों को सवालों के घेरे में लेने वाला मीडिया खुद सवालों के घेरे में है। ऐसे ही सवालों को इस पुस्तक में जगह दी गयी है। मीडिया के विभिन्न आयामों पर मीडिया विमर्श सहित कई पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों को भी इस संग्रह में जगह दी गयी है। हालांकि पूरी योजना मीडिया : महिला, जाति और जुगाड़ पर फोकस करना था। कोशिश किया हूं कि संकेतों में बातें आ जाये। कई प्रसंग ऐसे थे जिनसे दो-चार भी होना पड़ा।
इस पुस्तक को कौन सा प्रकाशन छाप रहा है?
प्रभात प्रकाशन इस पुस्तक को ला रही है।