रिश्वतखोरी के आरोप में एफआईआर का शिकंजा झेल रहे डीएसपी वीरेंद्र साहू के दामन पर पुराने दाग भी हैं. हमारे पूर्वी बिहार के ब्यूरो प्रमुख मुकेश कुमार की जुबानी उनकी कहानी.
2010 बैच के बिहार पुलिस सेवा के अफसर व रजौली एसडीपीओ , वीरेंद्र कुमार साहू उत्तर बिहार के मधुबनी जिले के रहने वाले है।ये अपने क्रिया कलाप से हमेशा सुर्खियों में रहते आये है।जमुई जिले में तत्कालीन आरक्षी अधीक्षक, रामनारायण सिंह के कार्यकाल में वीरेंद्र कुमार साहू ने प्रशिक्षु डीएसपी के रूप अपना योगदान यहां दिया था।जिले के सिमुलतला थाना क्षेत्र के पिपराडीह-कनौदि गांव में 5 अल्पसंख्यक लोगों की हत्या के उपरांत एसपी रामनारायण सिंह का तबादला यहां से कर दिया गया और पटनासिटी के एएसपी , उपेन्द्र शर्मा को जमुई का नया एसपी बनाया गया। इसी दौरान 19 सितम्बर,2012 को जमुई के खैरा थाना क्षेत्र के गिद्धेश्वर मंदिर और ललदैया घाट के बीच पुलिस पार्टी पर नक्सलियों ने हमला बोल दिया था।इस हमले में खैरा थाना के एक सब इंस्पेक्टर , जे.के.सिंह की घटनास्थल पर ही मौत हो गई थी।वही नवप्रशिक्षु सब इंस्पेक्टर ,कमलेश कुमार सहित दो पुलिसकर्मी घायल हो गये थे।
क्या है मामला
नवादा जिले के रजौली एसडीपीओ , वीरेंद्र कुमार साहू के अंगरक्षक मुन्ना खाँ को निगरानी महकमे की टीम ने पिछले दिनों रिश्वत के एक लाख दस हजार रुपये लेते रंगे हाथो गिरफ्तार कर लिया। अंगरक्षक मुन्ना खाँ ने निगरानी टीम के अधिकारियों को बताया कि डीएसपी साहब के कहने पर मैं रुपये लेने आया था।उक्त अंगरक्षक के बयान पर एसडीपीओ , वीरेंद्र कुमार साहू के खिलाफ मुकद्दमा दर्ज कर लिया गया है।जिसकी जांच निगरानी ब्यूरो के एएसपी , सुशील कुमार कर रहे है।
इस मामले में शीर्ष नक्सली लीडर,सिद्धू कोड़ा , चिराग दा , बसीर दा , नरेश यादव , दिनेश पंडित को नामजद अभियुक्त बनाया गया था। बाद में मुकेश यादव को अनुसंधान में इसका अप्राथमिकी अभियुक्त बनाया गया था। इनके खिलाफ कांड का साजिशकर्ता होने का आरोप लगाया गया था। अन लॉ फूल प्रिवेंशन एक्ट के प्रावधानों के मुगालते में जमुई पुलिस रह गई और दरोगा हत्याकांड का अभियुक्त नक्सली मुकेश जेल से छुट गया।
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पुलिस की इस लापरवाही के सूत्रधार और कोई नहीं खुद डीएसपी वीरेंद्र कुमार साहू थे।क्योंकि इस मामले को एसडीपीओ, वीरेंद्र कुमार साहू द्वारा खुद थानाध्यक्ष की हैसियत से दर्ज किया गया था और उन्होंने स्वयं अनुसंधानकर्ता के रूप में प्रभार ग्रहण किया था। फिर भी 90 दिनों के निर्धारित समय सीमा के अंदर आरोप पत्र समर्पित नहीं किया जा सका। जबकि यह मामला बड़ी नक्सली घटनाओं में एक था और इसमें पुलिस अधिकारी मारे गये थे और घायल भी हूए थे।
क्या है यूपीए एक्ट का प्रावधान
ऑन लॉफुल एक्टिविटी प्रिवेंसन् एक्ट में पुलिस को 90 दिन से अधिक का समय अनुसंधान करने और आरोप पत्र समर्पित करने के लिए मिल सकता है। परंतु इसके लिए अनुसंधानकर्ता द्वारा कोर्ट में आवेदन और शपथ पत्र देना पड़ता है कि बड़ी घटना है और नक्सलियों से जुड़ा मामला है।इसका अनुसंधान पुर्ण करने के लिए 90 दिन से अधिक समय की आवश्यकता है। यह आवेदन 90 दिन या 60 दिन के समय से पूर्व देना होता है। परंतु इस मामले में पुलिस ऐसा नहीं कर सकी। 90 दिनों के अंदर पुलिस द्वारा आरोप पत्र समर्पित नहीं करने के कारण अभियुक्त मुकेश यादव को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 167(2) का लाभ मिल गया और वह जेल से छूट गया। इसके पीछे तरह-तरह की चर्चाएं यहां होती रही।