7 वर्षों में मोदी की जो छवि बनाई, वह एक गुजराती कविता से ढह गई

जिन्हें ब्रह्मा का अवतार घोषित किया गया, गरीब, फकीर क्या-क्या नहीं कहा गया, गढ़कर जो ताकतवर छवि बनाई गई, वह सब एक गुजराती कविता से ढह गई।

पारुल कक्कड़

कुमार अनिल

गंगा की गोद में जन्म लेनेवाली हिंदी-भोजपुरी में वह कविता नहीं आई। उर्दू में भी नहीं। वह कविता आई गुजराती में। शव वाहिनी गंगा। इस एक कविता से अखबारों में, टीवी चैनलों पर अरबों खर्च करके सात वर्षों में साहेब की जो छवि बनाई वह ताश के पत्तों के महल की तरह ढह गई।

‘शव वाहिनी गंगा’ कविता का सृजन करनेवाली कवयित्री का नाम है पारुल कक्कड़। वे पहले से व्यवस्थाविरोधी कवयित्री नहीं रही हैं। भाजपा समर्थक उनके प्रशंसक रहे हैं। लेकिन उनकी एक कविता ने पूरे गुजरात में भूचाल ला दिया। उन्हें हजारों गालियां दी गईं। अश्लील गालियां दी गईं, जैसा कि साहेब की आलोचना करने पर हमेशा दी जाती हैं। कुछ अखबारों ने पारुल के खिलाफ विशेष संपादकीय तक लिख डाला। लेकिन पारुल कक्कड़ को सलाम, जिन्होंने तमाम धमकियों के बाद भी कविता को फेसबुक वॉल से नहीं हटाया। आज कोलकाता से प्रकाशित द टेलिग्राफ ने इसी कविता पर आए भूचाल को पहले पन्ने की प्रमुख खबर बनाई है। कविता अब सिर्फ गुजराती में ही नहीं अंग्रेजी, हिंदी सहित अनेक भाषाओं में अनुदित हो चुकी है।

इलियास मंसूरी द्वारा इस कविता का हिंदी में अनुवाद इस प्रकार है-

नंगा साहेब

एक साथ सब मुर्दे बोले सब कुछ ‘चंगा चंगा’

साहेब तुम्हारे रामराज में शव वाहिनी गंगा

खत्म हुए श्मशान तुम्हारे, खत्म काष्ठ की बोरी

थके हमारे कंधे सारे, आंखें रह गई कोरी

दर-दर जाकर यमदूत खेले

मौत का नाच बेढंगा

साहेब तुम्हारे रामराज में शव वाहिनी गंग

नित लगातार जलती चिताएं

राहत मांगे पलभर

नित लगातार टूटे चूड़ियां

कुटती छाति घर-घर

देख लपटों को फिडल बजाते वाह रे ‘बिल्ला-रंगा’

साहिब तुम्हारे रामराज में शव वाहिनी गंगा

साहेब तुम्हारे दिव्य वस्त्र, दैदिप्य तुम्हारी ज्योति

काश असलियत लोग समझते

हो तुम पत्थर, ना मोती

हो हिम्मत तो आकर बोलो

‘मेरे साहब नंगा’

साहेब तुम्हारे रामराज में शव वाहिनी गंगा

आज द टेलिग्राफ ने इसी कविता को लीड स्टोरी बनाया है। पूरा वाकया अखबार के रिपोर्टन ने नहीं, बल्कि एक गुजराती कवि मेहुल देवकाला ने लिखा है। मेहुल ने लिखा है कि उन्होंने कवयित्री पारुल से फोन पर बात की। मेहुल ने 2015 में तब के राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा- बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ। उन्होंने बहुत प्रयास किया कि कोई गुजराती साहित्यकार इस पत्र पर हस्ताक्षर करे, लेकिन तब एक भी गुजराती तैयार नहीं हुए। उनके पत्र पर मुंबई और दूसरे शहरों के लेखकों ने समर्थन दिया था। मेहुल ने कहा कि गुजराती में अब ऐसी कविता का आना खास बात है।

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मेहुल ने फोन करके पारुल को बधाई दी और कहा कि आपने कविता को सोशल मीडिया से डिलीट नहीं किया, अच्छा किया। पारुल ने कहा- डिलीट क्यों करती, मैंने कुछ बी गलत नहीं लिखा है।

By Editor