झारखंड का OWAISI फैक्टर: यह नया वोटिंग पैटर्न राजनीति की रूपरेखा बदल देगा?
Asaduddin Owaisi के इमर्जेंस के बाद मुस्लिम वोटिंग पैटर्न में एक पैन इंडियन बदलाव का दौर चल पड़ा है.इर्शादुल हक का विश्लेषण बताता है कि इस बदलाव को सेक्युलर दलों ने इग्नोर किया तो यह उनके लिए महंगा पड़ सकता है.
वोटिंग के इस बदलते पैटर्न को नजरअंदाज मत कीजिए.क्योंकि यह पैटर्न तेलंगाना की सीमाओं को फतह करता हुआ महाराष्ट्र से बिहार और झारखंड तक अपना असर दिखा रहा है. इस लेख में हम समझने की कोशिश करते हैं कि 2014 के बाद असदुद्दीन ओवैसी होने का क्या मतलब है.
बात की शुरुआत हम झारखंड से करते हैं. झारखंड इसलिए कि यह वही राज्य है जहां ओवैसी फैक्टर् का लेटेस्ट असर देखने को मिला है. तेलंगाना के हैदराबाद कंस्टिच्युएंसी से नमूदार हुई बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी के नेतृत्व वाली पार्टी ने पिछले पांच वर्षों में देशव्यापी पहचान अर्जित कर ली है.
झारखंड AIMIM ने JDU, LJP को पीछे छोड़ा
झारखंड में AIMI, यहां की कुल 81 सीटों में से 8 पर चुनाव लड़ा. इसने 81 सीटों पर पड़े कुल मतों का 1.16 प्रतिशत वोट प्राप्त किया. एआईएमआईएम ने नीतीश कुमार के जदयू से भी ज्यादा वोट हासिल किया. जजदयू को मात्र .73 प्रतिशत वोट मिले. जबकि उसके 25 या उससे ज्यादा उम्मीदवार मैदान में थे. राजद ने भी AIMIM के लगभग बराबर सीटों पर चुनाव लड़ा और उसने 2.75 प्रतिशत वोट हासिल किये. यहां याद रखने की बात है कि झारखंड में एलजेपी(.30 प्रतिशत) और बीएसपी को 1.53 प्रतिशत वोट मिले.
मुसलमानों का नया वोटर समुह और OWAISI
बेशक Owaisi की पार्टी झारखंड में एक भी सीट नहीं जीत सकी लेकिन उसने जिस तरह से अपनी उपस्थिति झारखंड में दर्ज की ही उसके निहतार्थ स्पष्ट संकेत देते हैं. जो इस प्रकार हैं:
- मुसलमानों में ( और आंशिक रूप से दलितों में भी) एक ऐसा वोटर समूह उभर कर सामने आया है जो यह मानने लगा है कि ओवैसी उनकी असरदार आवाज हैं और उनके विचारों का प्रतिनिधित्व बखूबी करने लगे हैं
- यह वर्ग उस पुराने ढ़र्रे पर बने रहने को तैयार नहीं है जिसके तहत उनके विचारों का प्रतिनिधित्व हिंदी भाषी प्रदेशों के क्षेत्रीय दल करते रहे हैं
- ओवैसी का यह वोटर वर्ग ‘अपनी सियासत, अपनी कयादत’ को प्राथमिकता देने लगा है. इसको ऐसे समझें कि यह वर्ग इस बात से चिंतिति नहीं कि मुसलमानों का वोट बंटे तो सेक्युलरिज्म की सियासत करने वाली पार्टियों को नुकसान होगा जबकि फायदा भाजपा को मिलेगा. यह वर्ग मानता है कि भाजपा को रोकने की जिम्मेदारी सिर्फ मुसलमान और दलित क्यों उठायें.
- यह नया वोटर वर्ग चाहता है कि सेक्युलरिज्म की सियासत करने वाली पार्टियां ओवैसी को अपने गठबंधन का हिस्सा बनायें.
ऊपर जिन चार बिंदुओ की चर्चा की गयी है वह एआईएमआईएम के कोर वोटर्स की थाह लेने के बाद सामने आई है. पार्टी के प्रदेश इकाई के अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ने पिछले कुछ वर्षों में बिहार में युवाओं को पार्टी की ओर आकर्षित करने में बड़ी भूमिका निभाई है.
बिहार में 2020 के अक्टुबर-नवम्बर में असेम्बली चुनाव होना है. लेकिन अब तक सेक्युलर पार्टियां ओवैसी को अछूत समझती रही हैं. कोई सेक्युलर पार्टी ओवैसी से हाथ मिलाना नहीं चाहती. लेकिन इस मिथक को हिंदुस्तान अवाम मोर्चा ने तोड़ने का इशारा दिया है. मोर्चा के अध्यक्ष जीतन राम मांझी 29 दिसम्बर को नागरिकता कानून के खिलाफ किशनगंज में होने वाली सभा में ओवैसी के साथ मंच साझा करेंगे. मांझी की रणनीति है कि वह मुस्लिम दिलत के गठबंधन को विस्तार दें. मांझी की पहचान भले ही एक मंझे हुए दूरअंदेश नेता के रूप में न रही हो, पर ओवैसी के संबंध में उनकी सोच को अगंभीर कहके नकारा नहीं जा सकता.
AIMIM के बिहार इकाई के युथ विंग के अध्यक्ष आदिल हसन आजाद का मानना है कि यह समय है जब सेक्युलरिज्म की सियासत का दम भरने वाले दल हमें इग्नोर करके नुकसान उठाने की भूल न करें. हालांकि राजद इस मामले में फिलवक्त आगे बढ़ने से परहेज कर रहा है. कुछ राजनीतिक टिप्पणीकारों का मानना है कि ओवैसी के कारण वोटों का पोलराइजेशन होगा. लेकिन वे भूल जाते हैं कि भाजपा 2014 और 2019 में वोटों को पोलराइज्ड पहले ही कर चुकी है. इसमें ओवैसी की कोई भूमिका नहीं रही.
बिहार पर Owaisi की नजर
जिस तरह से असदुद्दीन ओवैसी का वोट बेस विस्तार पा रहा है, वह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि बिहार में आगामी वर्ष होने वाले चुनाव में सेक्युलर दलों को सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा. ऐसा इसलिए कि बिहार की सामाजिक स्थिति झारखंड से काफी अलग है. झारखंड में मुसलमानों की आबाद 13-14 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है. वहां मुस्लिम डोमिनेटेड कंस्टिच्युएंसी भी कम हैं. जबकि बिहार में मुसलमानों की आधिकारिक आबादी 17 प्रतिशत है. सीमांचल में किशनगंज, कटिहार, पूर्णिया में तो करीब 15 सीट ऐसी हैं जहां मुस्लिम वोटरों की संख्या 50 से 70 प्रतिशत तक है. इसके अलावा दरभंगा, पूर्वी चम्पारण आदि ऐसे जिले हैं जहां 20-25 प्रतिशत आबादी वाली सीटें हैं. इस तरह ओवैसी फैक्टर 2020 में असर दिखायेगा, यह तय है.
ऐसे में बिहार चुनाव से पहले सेक्युलर दलों को ओवैसी फैक्टर पर गौर करना चाहिए. वैसे भी ओवैसी की मदद से तत्कालीन आंध्रप्रदेश में कांग्रेस हुकूमत बना चुकी है.
AIMIM का अखिलभारतीय विस्तार
कुछ महीने पहले ओवैसी की पार्टी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 2 सीटें जीती हैं. AIMIM ने 44 सीटों पर लड़ कर 7.4 लाख वोट हासिल किये. जबकि इस पार्टी ने 2014 के चुनाव में मात्र 5 लाख वोट हासिल किया था. औसी के बढ़ते रसूख का खामयाजा कांग्रेस को उठाना पड़ा. उसके पहले औसी का जादू बिहार में सर चढ़ के बोल चुका है. सीमांचल की किशनगंज सीट पर हुए उपचुनाव में AIMIM ने सबसे बड़ा जख्म कांग्रेस को ही दिया है. यहां कांग्रेस ने,न सिर्फ हार कर अपनी सीट गंवाई बल्कि उसका प्रत्याशी तीसरे पायदान पर खिसक गया. इस प्रकार आज की तारीख में AIMIM के तेलंगाना में 7 सदस्य, महाराष्ट्र में दो सदस्य हैं जबकि बिहार असेम्बली में उसका एक सदस्य है. इसी तरह हैदराबद से बैरिस्टर असदुद्दीन ओवैसी सांसद हैं तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र के औरंगाबाद से इम्तेयाज जलल लोकसभा के सदस्य हैं.
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