चार दशक के संघर्ष के बाद अलकरीम युनिवर्सिटी व कटिहार मेडिकल कालेज जैसी उपलब्धियां अपने नाम करने वाले अशफाक करीम राज्यसभा सदस्य बन गये हैं. एक्सक्लुसिव इंटर्व्यू में बताते हैं कि अगर मैं मेडिकल कॉलेज न चला रहा होता तो आज बीड़ी के कारोबारी होता.
हमारे सम्पादक इर्शादुल हक से बात चीत में अशफाक करीम ने अपने जीवन के संघर्षों पर खुल के चर्चा की. कई बार भावुक हुए तो कई बार समय की कठोरता से क्रोधित भी हुए. बात चीत में उन्होंने कई मुद्दों की लम्बी चर्चा की. इस बात चीत के पहले भाग में पढि़ए कि कैसे कठिन चुनौतियों का सामना करके उन्होंने बिहार को पहला निजी मेडिकल कालेज का तोहफा दिया.
अशफाक करीम के संघर्ष की कहानी उन्हीं की जुबानी
यह 1983 की बात है. तब मैं 24-25 साल का रहा होगा. सियासत को समझने की ललक थी. मैं तब युथ जनता पार्टी का महासचिव था. लेकिन कांग्रेस का बोलबाला था. चाहत थी कि समाज के लिए कुछ करूं. पर दिल में यह बात भी थी कि कुछ ऐसा करूं जो कुछ अलग हो. तब उस समय के बड़े नेताओं से मिलना-जुलना होता था. उस समय कर्नाटक के एक कद्दावर कांग्रेसी नेता थे. नाम था अजीज सेठ. बिहार दौरे पर आये थे. उनसे पहले भी कई बार मिल चुका था. एक दिन उन्होंने मुझ से कहा- अशफाक तुममें गजब की पोटेंशियल है. राजनीत के साथ साथ कुछ ऐसा करो कि लोगों को रोजगार भी दे पाओ. मैंने बड़ी विनम्रता से पूछा क्या करूं? थोड़ी देर सोचने के बाद उन्होंने कहा- मेडिकल कॉलेज शुरू करो. या बिड़ी बनाने का काम करो. इतना सुन कर मैं हैरत में पड़ गया. कहां मेडिकल कालेज और कहां बीड़ी का कारोबार!! दोनों अलग अलग ध्रुवों का काम. अपने शैक्षिक मजाज के कारण मुझे मेडिकल कालेज वाली राय सटीक लगी.
लीक से अलग चलने की जिद्द
दर असल उन्होंने बीड़ी कारोबार का जिक्र इसलिए किया क्योंकि वह देश भर के बीड़ी कारोबारी युनियन के नेता थे. मुझे मेडिकल कालेज शुरू करने की उनकी राय पसंद आयी. मैं कुछ अलग करना चाहता था. मैं यह शुरू से मानता था कि समाज के पिछड़ेपन को दूर किये बिना समाज की तरक्की संभव नहीं. बीड़ी की फैक्ट्री खोल कर बहुत पैसे कमाये जा सकते थे. लेकिन मेरा मात्र यही उद्देश्य नहीं था. मेरे ऊपर धुन सवार हो गया. उस समय मैं संविधान के अनुच्छेद 30 का अध्ययन करने लगा. यह अनुच्छेद अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान खोलने, चलाने का अधिकार देता है. बस मैं चल पड़ा. हमने तय किया कि सीमांचल के पिछड़े इलाके में यह काम करना है. तब मनिहारी के विधायक मुबारक साहब हुआ करते थे. मुबारक साहब के सहयोग से कटिहार में 35 एकड़ जमीन खरीदी. दरभंगा मेडिकल कालेज के तब एक विख्यात चिकित्सक हुआ करते थे डाक्टर नवाब. नवाब साहब को मैंने आग्रह किया कि वह हमारे कालेज के प्रिंसिपल बन जायें. वह तैयार हो गये. पूरी तैयारी हो गयी.
फिर क्या था 1987 में अखबारो में नामांकन के लिए विज्ञापन निकलवाया. लेकिन विज्ञापन निकलने के तीसरे दिन ही मेरे ऊपर एफआईआर कर दी गयी. तब जनसंघ के बिहार के अध्यक्ष एसएन आर्या थे. उन्होंने ही केस करवाया. बस उसी दिन से मैं अदालती लड़ाई में कूद पड़ा. उन्होंने मुझ पर तरह तरह के आरोप लगवाये. लेकिन सारे आरोपों का मैंने जम कर सामना किया. अदालत मेरे तमाम जवाब से संतुष्ट हुई. समय बीतता गया. 1992 में कोशी क्षेत्र के लिए बीएन मंडल विश्वविद्यालय की स्थापना सरकार ने की. कटिहार मेडिकल कालेज को बीएन मंडल विश्वविद्यालय से अफेलिएशन मिला. पर इसके खिलाफ भी हमें अदालत में घसीटा गया. अदालत की दो सदस्यीय बेंच की अलग-अलग राय आयी. मैं सुप्रीम कोर्ट गया. सुप्रीम कोर्ट में हमारी जीत हुई. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि कटिहार मेडिकल कालेज की परीक्षा बीएन मंडल विश्वविद्यालय आयोजित करे.
अदालती जंग की शुरुआत
अदालत के आदेश के बावजूद परीक्षायें आयोजित करने के राह में कई और बाधायें डाली गयीं. कुछ राजनीतिक रसूख वाले लोगों ने बीएन मंडल विश्वविद्यालय के तत्कालीन वीसी रामबदन पर दबाव डाला गया कि वह परीक्षा न आयोजित करें. लेकिन रामबदन को मालूम था कि अशफाक रहमान एक जुझारू इंसान है. वह कंटेम्पट ऑफ कोर्ट कर सकता है. फिर भी उन पर दबाव दे कर देरी की गयी. मैं फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया. कोर्ट ने पंद्रह दिनों के अंदर परीक्षा लेने की सख्त हिदायत दी. तब लिखित परीक्षा शुरू हो सकी. लेकिन यह कोई आखिरी लड़ाई नहीं थी. बाधाओं की लम्बी दीवार फिर खड़ी की गयी. प्रेक्टिकल की परीक्षा में फिर अडंगा डाला गया. दबाव डाला गया कि प्रेक्टिकल की परीक्षा दरभंगा में ली जायेगी.इसके पीछे उद्देश्य था कि छात्रों को हैरास किया जाये. मैंने फिर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. मैंने तर्क दिया कि किसी भी सरकारी मेडिकल कालेज से उम्दा लेबोरॉट्री कटिहार मेडिकल कालेज कि है. कोर्ट ने दो सदस्यों की कमेटी बनाई. और रिपोर्ट देने को कहा. जांच के बाद कमेटी ने स्वीकार किया की केएमसी की लैब अत्याधुनिक भी है और मानक के अनुकूल भी.
इस लम्बी कानूनी लड़ाई में दशक लग गये. इस सवाल के जवाब में कि इतनी ऊर्जा, लड़ने के लिए कहां से मिली. कहां से प्रेरणा मिली. अशफाक बताते हैं- अल्लाह पर भरोसा था और मंजिल की तरफ बढ़ने की दीवानगी थी. वक्त के थपेड़ों ने लड़ना सिखाया तो तजुर्बों की गहराई भी दी. 1992 से आज तक लगातार कालेज में परीक्षायें आयोजित होती हैं. सैकड़ों डाक्टर देश और दुनिया के कोने कोने में काम कर रहे हैं.
1400 स्टाफ में 900 बहुसंख्यक समाज के
अशफाक बताते हैं भले ही मैंने अल्पसंख्यक कालेज खोला. पर इसमें बहुसंख्यक समाज के छात्रों की भी भरमार रही है. आज कटिहार मेडिकल कालेज में 1400 स्टाफ हैं. इन में 900 के करीब स्टाफ, प्रोफेसर, डाक्टर, ननटिचिंग स्टाफ बहुसंख्यक समाज के हैं. एनपी यादव आज कालेज के प्रिंसिपल हैं.
अब अलकरीम युनिवर्सिटी का सफर…
अशफाक बताते हैं अब हमार पूरा ध्यान अलकरीम युनिवर्सिटी पर है. पूर्वी भारत में ऐसा आलीशान निजी युनिवर्सिटी बनने की राह पर हम हैं जिसकी मिशाल आसानी से नहीं मिलेगी. बिहार सरकार ने इस युनिवर्सिटी को लेटर आफ इंटेंट दे रखा है. पर इसके लिए भी काफी लड़ाइयां लरड़नी होगी. क्योंकि यह काम भी आसान नहीं. पर हमें खुद पर ऐत्माद है. अल्लाह पर भरोसा है. हम कामयाब होंगे.
इस साक्षात्कार के अगले हिस्से में आप पढ़ेंगे. अशफाक करीम के सियासी सफर की कहानी.