Ambedkar-jOurnalism

मुकेश कुमार

 “भारत में पत्रकारिता पहले एक पेशा थी. अब वह एक व्यापार बन गई है. अख़बार चलाने वालों को नैतिकता से उतना ही मतलब रहता है, जितना कि किसी साबुन बनाने वाले को. पत्रकारिता स्वयं को जनता के ज़िम्मेदार सलाहकार के रूप में नहीं देखती. भारत में पत्रकार यह नहीं मानते कि बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, निर्भयतापूर्वक उन लोगों की निंदा करना – जो ग़लत रास्ते पर जा रहे हों – फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों, पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना उनका पहला और प्राथमिक कर्तव्य है.”

(बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर, संपूर्ण वाङ्मय: खंड 1, पृ. 273). 

यह आज की पत्रकारिता के लिए मशाल और मिसाल का काम करती जो इसकी दशा और दिशा तय करेगी, परन्तु अफ़सोस, भारतीय मुख्यधारा की मीडिया इससे कोसो दूर है. पत्रकारिता के  मिशन से प्रोफेशन और अंत में कमीशन तक की यात्रा की परिकल्पना बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर ने बहुत पहले कर ली थी.

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31 जनवरी 1920 को मूकनायक पाक्षिक के प्रथम संपादकीय में बाबा साहब ने लिखा था – “मुंबई से निकलने वाले समाचारपत्रों को बारीकी से देखा जाए तो पता चलता है कि उनमें अधिकतर किसी विशिष्ट जाति के हितों को संरक्षित करते हैं. दूसरी जातियों को उन्हें परवाह नहीं. इतना ही नहीं, कभी-कभी उन्हें नुकसान पहुँचाने वाली बातें भी उन पत्रों में दिखाई देती है.(‘मूकनायक’ पृष्ट 34).  

न्यूजरूम में नदारद दलित

जाति को लेकर पूर्वाग्रह तब भी था और आज भी जाति लो लेकर पूर्वाग्रह है. रोबिन जेफ्री जब भारतीय न्यूज रूम में जातिगत संरचना पर सवाल उठाते हैं कि दलितों का प्रतिनिधित्व क्यूँ नहीं है? ऑक्सफेम और न्यूजलौंड्री द्वारा मीडिया में विविधता पर किये गए सर्वे से पता चलता है कि न्यूजरूम में नेतृत्व करने वाले 121 ओहदों में से दलित और आदिवासी नदारद हैं जबकि  सवर्ण जातियों के पास 106 पद और पिछड़ी जातियों के पास 5 और 6 पद अल्पसंख्यक लोगों के पास है.

‘अस्पृश्यों के पास कोई प्रेस नहीं है’ यह आज भी सच साबित होती दिखती है दलितों-आदिवासी और पिछड़े लोगों की ख़बरें हाशिये पर दिखती हैं. न तो उनके मुद्दे प्रमुखता से उठाये जाते हैं और न उनको मुख्यधारा में जगह मिलती है. “आरक्षण के सहायता से कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका में दलित तो आयें परन्तु आज भी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के चौथे खंभे में दलितों की संख्या नगण्य है” इस कथन के समर्थन में कई आंकड़े भी हैं जो इसकी पुष्टि करते हैं.

मीडिया की जाति

मीडिया की जात क्या है? क्या मीडिया की भी कोई जाति होती है? यदि नहीं तो मीडिया में दलितों (पिछड़े-मुस्लिम-महिला) के मुद्दे क्यों नहीं सार्थकता से उठती हुई दिखाई/सुनाई देती है? हाशिये पर खड़े समाज  पर मीडिया समाज क्यों ध्यान नहीं देता? भुत-प्रेत, राखी-मीका, जुली-मटुकनाथ पर पैकेज बनाने वाला मीडिया क्यों दलितों की अनदेखी करता है? जो कुछ सरोकारों के साथ चलने का दावा करते हैं उनके प्रयास भी महज रस्म अदायगी क्यों होते हैं? क्या बाजारवाद के इस दौर में महज इसलिए दलितों की खबरों को जगह नहीं मिलती है क्योकिं उनके सरोकार मध्यवर्गीय विज्ञापन देने वाली कंपनियों के सरोकारों से मेल नहीं खाती? तो क्या बाजारवाद के इस दौर में मीडिया “समाचार वही जो व्यापार बढ़ाये” के मुनाफे के तहत काम करती है?क्या भारतीय मीडिया नवपूंजीवाद के लाभ-हानि के दबाव के तहत काम करती है? यह सभी मीडिया के लिए भले सही न हो परन्तु भूमंडलीकरण के इस दौर में लोकतांत्रिक आग्रह कमजोर हुएं है. इसी का परिणाम है कि मीडिया मिशन से कमीशन की तरफ छलांग लगा चुका है.

सवालों के घेरे में

लोगों से सवाल पूछने वाला मीडिया समूह खुद सवालों के घेरे में आ गया है.क्यों नहीं दलितों के प्रति भारतीय मीडिया का रवैया अभी भी बदला है?न किसी सफाई कर्मचारी की मौत को लेकर सवाल उठाये जातें हैं और न ही कोई पैकेज बनाएं जातें है?क्यों नहीं दलितों के प्रति  हिंसा और बलात्कार की घटना पर्याप्त ध्यान खीच पाती हैं?क्यों नहीं आदिवासी महिलायोओं की खबरें जगह पाती है? क्यों नहीं मुस्लिमों की बेगुनाह रिहाई खबर बन पाती है?भारतीय मीडिया क्यों नहीं दलितों-पीड़ितों-शोषितों की तरफ अपने आप को खड़ा पाता है?

मीडिया में जाति की हिस्सेदारी पर बहस खड़ा करना मेरे लेख का मतलब नही है. मेरा मूल प्रश्न यह है कि मीडिया में दलितों के मुद्दे को जगह क्यों नहीं दी जाती है? खैरलांजी घटना इसका उदहारण है जिसको भारतीय मीडिया ने शुरू में कवर नहीं किया था.

समकालीन भारत में बाबासाहेब को लगा कि समाचारपत्रों में दलित और हाशिये के समाज को  प्रतिनिधित्व नहीं मिल रहा है इसके लिए उन्होंने मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत (1924), समता (1928), जनता (1930), आम्ही शासनकर्ती जमात बनणार (1940), प्रबुद्ध भारत (1956) समाचारपत्रों का संपादन और लेखन किया.

बाबा साहेब ने आधुनिक प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अच्छी सरकार के लिए समाचारपत्र को मूल आधार माना है. वो समाचारपत्र को इक ऐसी व्यवस्था के रूप में देखते थे जो वैसे लोगों को शुद्धिकरण की तरफ ले जा सकती है जो अपने राजनीतिक दिशा में गलत दिशा की तरफ गए हैं. उनका मानना था कि ‘समाचारपत्र न केवल मतदाताओ को प्रशिक्षित करते हैं बल्कि यह भी सुनिश्चित करते हैं कि जिसे उन्होंने अपने मत से चुना है, वे उनके साथ खड़े हैं, अपना कर्तव्य ठीक ढंग से निभा रहे हैं.”

“व्यक्ति-पूजा उनका मुख्य कर्तव्य बन गया है.” समकालीन दौर में यह इतनी अधिक प्रासंगिक हो गई है कि इसने ‘इंदिरा इज इंडिया’ के दौर को पीछे छोड़ दिया है. मीडिया के चारण काल की परिकल्पना समयपूर्व कर लेना बाबा साहेब की प्रासंगिकता प्रमाणित करती है.

“भारतीय प्रेस में समाचार को सनसनीख़ेज बनाना, तार्किक विचारों के स्थान पर अतार्किक जुनूनी बातें लिखना और ज़िम्मेदार लोगों की बुद्धि को जाग्रत करने के बजाय गैर-ज़िम्मेदार लोगों की भावनाएं भड़काना आम बात है.”आज की मीडिया इस निकष पर कितनी सटीक बैठती है. इसपर विवाद की कोई गुंजाइश नहीं है. परन्तु, इंटरनेट के प्रवाह ने बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों को लोकतांत्रिकरण करने में बड़ी भूमिका निभाई है, परन्तु सफ़र जारी है.

(लेखक पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ से पीएचडी रिसर्च स्कॉलर हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं 

By Editor


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