भगवान महावीर की वाणी सुनने में रूई-सी, व्यवहार में पहाड़ जैसी

भगवान महावीर की बातें पढ़ने में रूई-सी हल्की लगती हैं। उनकी साधारण-सी इस बात को जीवन में उतारने के लिए हमें कई जन्म लेना पड़ेगा।

भगवान महावीर का एक संदेश आप कई बार पढ़ चुके होंगे, दुहरा चुके होंगे। लेकिन कभी आपने इसे आजमा कर नहीं देखा होगा। उनका एक वचन है-दूसरों के लिए वही चाहो, वही सोचो, जो तुम अपने लिए चाहते हो, सोचते हो। सुनने में यह बात कितनी साधारण लगती है, पर है असाधारण।

हमारे व्यक्तिगत जीवन, समाज, देश-दुनिया में आज इतना तनाव, नफरत, हिंसा दिख रही है, उसका एक बड़ा कारण महावीर की वाणी के उल्टा व्यवहार में है।

हम सब चाहते हैं कि हम उन्नति करें, पर क्या हम अपने पड़ोसी के बारे यही सोचते हैं। क्या हम अपनी जाति-धर्म के बारे में जो सोचते हैं, वही दूसरी जाति-धर्म के बारे में सोचते हैं? क्या हम अपने देश के बारे में जो सोचते हैं, वही पड़ोसी देश के बारे में सोचते हैं।

आपको याद होगा पिछले साल एक टीवी चैनल ने बहस की थी, जिसका शीर्षक पड़ोसी देश के बारे में था कि वह कोरोना की मौत मरेगा। बहुतों को अच्छा लगा था।
हमारे पूरे चिंतन में दूसरा हावी है। हमारा सुख भी दूसरे के दुख में निहित है। हम पड़ोसी देश में महंगाई की खबर देखकर संतुष्ट होते हैं। हमें सुकून मिलता है। इससे हम अपनी महंगाई भूल जाते हैं।

हमारा जो प्रिय है, उसकी गलतियों को भी हम सही ठहराते हैं और जो विरोधी है, उसकी गलती पर हायतौबा मचाते हैं। इसीलिए किसी दूसरे व्यक्ति की, किसी दूसरे प्रदेश की छोटी हिंसा भी हमें भयानक लगती है और किसी प्रिय व्यक्ति की, प्रिय प्रदेश में बड़ी हिंसा भी मामूली लगती है।

दूसरे की खुशी से हम दुखी हो जाते हैं। जब भी कोई दूसरे को दुख पहुंचाने की बात करता है, हम खुश होते हैं। यह दुष्चक्र है। आप दूसरे के खिलाफ बुरा सोचते हैं, तो दूसरा आपके प्रति बुरा सोचता है।

महावीर कहते हैं दूसरे के प्रति जैसे ही आपने बुरा सोचना शुरू किया, दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ेगा यह तो पता नहीं, पर आपका जीवन दुखों से, तनाव से भर जाएगा, यह तय है। बुद्ध भी इसी तरह कहते हैं कि दुख का कारण बाहर नहीं है। यह दूसरा हमारे दफ्तर से लेकर घर तक घुसा हुआ है। बुद्ध के अष्टागिंक मार्ग में वही दृष्टि है, जो भगवान महावीर की इस वाणी में है।

भगवान महावीर की इस वाणी को व्यवहार में लाने की शर्त है राग-द्वेष से मुक्त होना। जब दूसरा न रहे। इसके बाद आदमी की प्रतिभा, उसकी संभावना खिल उठती है। हाल में दिलीप कुमार का निधन हो गया। वे इसलिए महान कलाकार थे क्योंकि वे जब किसी किरदार में होते थे, तब दिलीप कुमार नहीं होता था। या कहें दिलीप कुमार किरदार में डूब जाते थे। मैंने पहली बार यू-ट्यूब पर कल महान शहनाईवादक विसमिल्ला खां और सितारवादक विलायत खां को बजाते-बजाते गाते देखा। दोनों गाने लगे-मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो..। दोनों जब गा रहे हैं तो लगता है वे कृष्णभक्ति के रस में डूब गए हैं। आप भी सुन सकते हैं। डूबना का अर्थ ही है एक हो जाना।

ढाई हजार साल पहले भी भक्त बनना आसान था, मित्र बनना कठिन

भगवान महावीर की इस साधारण-सी लगनेवाली वाणी को जीवन में उतारने के लिए मैं से हम की यात्रा करनी पड़ेगी।

By Editor


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