बिहार चुनाव : किस गठबंधन के साथ जाएगी कौन सी जाति ?
शाहबाज़ की विशेष रिपोर्ट
भारत में बिहार प्रदेश जाती-आधारित राजनीति के लिए मशहूर है. पिछले दशकों में आये सामाजिक बदलाव के कारण अब पिछड़ों की राजनीति ने सवर्ण राजनीति की जगह ले ली है. जहाँ 2015 में त्रिकोणीय मुकाबला था और जाति का दबदबा था वही 2020 में स्थिति अलग है क्यूंकि युवाओं की बढ़ती शैक्षणिक योग्यता के कारण जातीय राजनीति का महत्व काफी कम हो गया है.
बिहार की राजनीति 2005 से त्रिकोणीय हो चुकी है जिसमे राजद, भाजपा और जदयू मुख्य खिलाडी है और जाति प्रमुख फैक्टर था. कांग्रेस लम्बे समय से बिहार में दुबारा उभरने में नाकाम रही है. एनएसएसओ (नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन) के अनुमान के मुताबिक़, बिहार की आधी जनसंख्या ओबीसी (पिछड़ा वर्ग) है. राज्य में दलित और मुसलमान दो सबसे बड़े समुदाय हैं. जातीय राजनीति का ख़राब पहलु और इसका महत्व घटने का प्रमुख कारण यह है कि अधिक जनसँख्या के बावजूद कई समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता। दूसरा कारण शहरीकरण है जो जाति से ज़्यादा विकास को प्राथमिकता देता है.
अगर 2015 बिहार विधान सभा चुनाव की बात करें तो उस समय राष्ट्रीय जनता दल (RJD) और जनता दल यूनाइटेड (JDU) ने साथ में चुनाव लड़ा था. बिहार में कोइरी जाति के 8 % लोग हैं लेकिन 19 विधायक बने. कुर्मी जाति बिहार की जनसँख्या का 4 % है लेकिन इस जाति से 16 विधायक बने. वहीं, बिहार में 17 % फ़ीसदी मुसलमान हैं और उन्होंने 24 सीटें जीतीं. बिहार में मुसहर पाँच फ़ीसदी हैं लेकिन एक ही सीट जीत पाए. बिहार में 15 फ़ीसदी यादव हैं लेकिन फिर भी पिछले विधानसभा चुनाव में कुल 61 यादव उम्मीदवार जीते थे. राजद को सबसे ज़्यादा 80 सीटें मिलीं. जदयू को 71 और कांग्रेस को 27 और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) 53 सीटों पर जीती थी.
तेजस्वी का यह मास्टर स्ट्रॉक NDA के होश उड़ाने वाला क्यों है
2015 में राजद के पारंपरिक वोटर यादव और मुस्लिम समुदाय ने उन्हें समर्थन देना जारी रखा वही जेडीयू के ‘लव-कुश’ यानी कुर्मी, कोइरी और कुशवाहा समाज ने जदयू को दूसरी नंबर की पार्टी बना दिया। बाकी पिछड़े वर्ग के वोट नहीं बंटे. वही 2020 में स्थिति अलग है. एक तरफ त्रिकोणीय राजनीति की उलटफेर से लोग तंग आ चुके है वही बढ़ते पलायन के कारण बिहार के अधिकतर युवा जातीय राजनीति से मुँह फेर चुके है.
बिहार के मुख्य विपक्षी दल राजद ने बेरोज़गारी के मुद्दे को चुनावी मुद्दा बनाकर जातीय राजनीति का विकल्प तलाशा है. क्यूंकि बिहार की राजनीती में युवा वोट बैंक एकजुट करने वाला बल (Unifying Force) बनकर उभरा है. तेजस्वी के बेरोज़गारी हटाओ पोर्टल और हेल्पलाइन नंबर पर विभिन्न जातियों के 20 लाख से ज़्यादा युवाओं का बायोडाटा अपलोड करना या कॉल करना इस बात का उदाहरण है कि बिहार में जाति का दबदबा कम हुआ है और रोज़गार शिक्षा और पलायन जैसे मुद्दे अब ज़मीन पकड़ चुके है.
बिहार चुनाव में किसान बिल से NDA को कितना होगा नुक्सान ?
उदाहरण के लिए लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) जिसका प्रमुख वोट बैंक दलित और पासवान समुदाय है. 2005 में पार्टी ने अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन किया था जिसमें 178 सीटों पर लड़कर 29 सीटों पर जीत हासिल की थी. लेकिन छह महीने बाद दोबारा हुए चुनाव में 203 में से वे 10 सीटें ही जीत पाए. उसके बाद 2010 में एलजेपी ने राजद के साथ चुनाव लड़ा और 75 में से 3 सीटें जीतीं. लोजपा ने 2015 बिहार चुनाव में 42 में से सिर्फ 2 सीटें जीती थी. वही अगर उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (RLSP) की बात करें जो कुशवाहा समाज के नेता है तो 2019 लोक सभा चुनाव में एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही.
2020 में कौन सी जाति किसको देगी वोट ?
अगर बिहार विधान सभा चुनाव 2020 को जातीय परिदृश्य से देखा जाए तो भी विपक्ष का पलड़ा भारी दिखता है. क्यूंकि बिहार की आधी जनसँख्या ओबीसी है. राजद के पास यादव और मुस्लिम वोट बैंक है साथ में दलित और पिछड़े भी शामिल है. कांग्रेस भी कुछ सीटों पर जीत सकती है. वही भाजपा से नाराज़ सवर्ण भी विपक्ष को वोट कर सकते है.
दूसरी तरफ एनडीए गठबंधन के दो प्रमुख दल भाजपा और जदयू के पास परंपरागत रूप से सवर्ण; ब्राह्मण,राजपूत,भूमिहार आदि और कुर्मी, कोयरी और कुशवाहा का समर्थन है. लेकिन 2014 के बाद के देश के कई राज्यों के विधान सभा चुनावों के नतीजे बताते है कि लोकल मुद्दों पर गौण रहने के कारण एनडीए को भारी नुक्सान उठाना पड़ा है. अब एनडीए को जातीय राजनीति का सहारा है जो 2020 चुनाव को भी त्रिकोणीय बनाकर विपक्ष के लिए मुश्किल बढ़ा सकती है.
दलित – भाजपा के खिलाफ। आगामी बिहार चुनाव में भी ऐसी ही सम्भावना
कुशवाहा समाज – 2019 में यह समाज भाजपा का समर्थक रहा. आगामी बिहार चुनावों में भी ऐसा ही रह सकता है.
मुस्लिम समाज – परंपरागत रूप से राजद का समर्थक। आगामी बिहार चुनाव में राजद और ओवैसी का दे सकता है साथ.
सवर्ण – परंपरागत रूप से भाजपा का समर्थक – आगामी बिहार चुनाव में मोदी और नीतीश से नाराज़ सवर्ण विपक्षी दलों का दे सकते है साथ.
यादव – परंपरागत रूप से राजद का समर्थक, इस बार भी यही सम्भावना।
कुर्मी-कोयरी – परंपरागत रूप से नीतीश के साथ, नाराज़ वोटर दुसरे दल की तरफ भी देख सकते है.
चुनाव को लेकर राजद में इतना आत्मविश्वास क्यों है ?
बिहार चुनावों में जनता दो मकसद से वोट करती है. किसी पार्टी की सरकार बनाने के लिए और किसी पार्टी की सरकार हटाने के लिए. बिहार में जब भी सत्ता परिवर्तन हुआ है उसमें दुसरे मकसद के तहत लोगो ने वोट दिया (किसी पार्टी की सरकार हटाने के लिए). इसे राजनीतिक विश्लेषक नेगेटिव वोटिंग कहते है. जानकार मानते है कि बिहार की मौजूदा सरकार को बिहार चुनाव से दो खतरे है. पहला अगर जातीय वोटिंग नहीं हुई और दूसरा नेगेटिव वोटिंग से (मौजूदा सरकार हटाने के लिए). नेगेटिव वोटिंग का प्रमुख कारण एंटी-इंकम्बेंसी और घोटाले,बेरोज़गारी, कोरोना महामारी और शिक्षा-पलायन हो सकता है. जातीय समीकरण चाहे जो भी कहें लेकिन इन दोनों ही स्थिति में एनडीए को भारी नुक्सान हो सकता है.