बिहार चुनाव में किसान बिल से NDA को कितना होगा नुक्सान ?
शाहबाज़ की कवर स्टोरी
कृषि विधेयक के खिलाफ देशभर में किसान आंदोलनरत है. बिहार में भी किसान बिल के खिलाफ माहौल बन रहा है क्यूंकि विपक्ष इसे “कृषि का कॉरपोरेटीकरण” मानता है. अब यह मुद्दा राज्य के बड़े किसान और छोटे किसान के बीच की राजनीतिक लड़ाई में बदलकर चुनाव के नतीजों पर असर डाल सकता है.
बता दें कि बिहार एक कृषि प्रधान राज्य है क्यूंकि यहाँ पिछले दशकों में उद्योग धंधो का विकास नहीं हुआ. कृषि विधेयक पर बिहार के राजनीतिक दलों का स्टैंड उनके वोट बैंक के हिसाब से है. राज्य के कृषक समाज में दो वर्ग है एक जिनके पास ज़मीन है (बड़े किसान) और दुसरे जिनके पास खुद की ज़मीन नहीं है बल्कि वह दूसरों के खेतों पर काम करते है (छोटे किसान). चूँकि बिहार के कृषक समाज का एक वर्ग पारम्परिक तौर से सत्तापक्ष (बीजेपी और एनडीए) का समर्थक है वही दूसरा वर्ग विपक्ष (महागठबंधन) का इसलिए यह राजनीतिक संघर्ष का रूप ले सकता है जिसका असर चुनाव के नतीजों पर पड़ सकता है.
बिहार में जिस जाति के लोगों के पास ज़मीन है उनमें मुख्य तौर पर कुर्मी, यादव, भूमिहार और राजपूत आते हैं. इनमें से ऊँची जाति वालों की ज़मीन पर दलित किसान खेती करने का काम करते हैं. जहाँ एक तरफ बिहार में NDA गठबंधन के दो प्रमुख दल बीजेपी और जदयू इसका समर्थन कर रहे है वही मुख्य विपक्षी दल राष्ट्रीय जनता दल (RJD) इसका विरोध कर रहा है. जानकारों के अनुसार बिहार में भी कृषि भी एक बड़ा मुद्दा है. इसलिए देशभर में किसानो की बदहाली को देखते हुए वह NDA के खिलाफ वोट कर सकते है.
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मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कृषि विधेयक का समर्थन किया और कहा कि “बिहार की स्थिति दूसरी है. हमने 2006 में ही APMC को ख़त्म कर दिया था. किसी किसान को सामान बेचने में कोई दिक्क़त नहीं हुई. पहले अनाज ख़रीद का काम बिहार में होता ही नहीं था. हमने शुरू करवाया. इस बिल के बारे में अनावश्यक ग़लतफ़हमी पैदा की जा रही है. ये बिल किसानों के हक़ में है.”
वही राजद नेता नेता तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) कृषि विधेयकों का विरोध करते हुए कहा कि “सरकार ने हमारे ‘अन्नदाताओं’ को फण्डदाताओं की कठपुतली बना दिया है। कृषि विधयक किसान विरोधी हैं और (इस कानून ने) उन्हें बेदखल कर दिया है। सरकार ने कहा था कि वे 2022 तक किसानों की आय को दोगुना करेंगे, लेकिन ये बिल उन्हें गरीब बना देंगे। कृषि क्षेत्र का कॉर्पोरेटकरण किया गया है”.
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बिहार के कृषक समाज के बारे में एक आम धारणा है कि यहाँ किसान MSP वाली फसलें नहीं उगाता है. जानकार मानते हैं की यह मायने नहीं रखता क्यूंकि वैसे भी देशभर में किसानो की हालत चिंताजनक है. लम्बे समय से किसानो की आत्महत्याएं इसका उदाहरण है. कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर समस्त कृषक वर्ग में डर है. इसलिए बिहार में धीरे धीरे माहौल कृषि बिल के ख़िलाफ़ बनता दिख रहा है. अब अगर कृषक वोट पैटर्न के विपरीत वोट करते है तो कोई हैरानी नहीं होगी।
पटना के एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज़ में पूर्व निदेशक डॉ. डीएम दिवाकर कहते हैं, ” बिहार के 96.5 फ़ीसदी किसान छोटे और मध्यम ज़मीन वाले हैं. इसमें से बहुत ज़्यादा तो एमएसपी वाले फसल नहीं उगाते, लेकिन जो उगाते हैं, ये बात सच है कि उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता. अगर विपक्षी पार्टियाँ ऐसे किसानों को ये समझा पाने में कामयाब होती हैं कि एमएसपी का मुद्दा उनसे कैसे जुड़ा है, तो एनडीए को नुक़सान हो सकता है.” प्रोफेसर दिवाकर ने यह भी कहा कि बिहार के किसानों का कुछ भला नहीं हुआ, ऐसे में एनडीए को बिल के फ़ायदे गिनाने में मुश्किल आएगी और आरजेडी और कांग्रेस इसका फ़ायदा उठा सकते हैं”.
बता दें कि बिहार में APMC (Agricultural Produce Marketing Committee) अथवा मंडियों को 2006 में ख़त्म कर दिया गया था. किसान संगठनों का आरोप है कि इसकी वजह से राज्य के बड़े और छोटे किसान दोनों को MSP (Minimum Support Price) लाभ नहीं मिला। हाल ही में लम्बे आरसे से कृषि मुद्दों पर काम कर चुके कोसी बचाओ आंदोलन के संस्थापक महेंद्र यादव ने कहा कि अगर सरकार सिर्फ किसानो को MSP की गारंटी दे दे तो किसान इसका विरोध नहीं करेंगे”.
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न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)
किसानों के हितों की रक्षा करने के लिए देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था लागू की गई है. केंद्र सरकार तय न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों से फसल ख़रीदती है. भारत सरकार का कृषि मंत्रालय, कृषि लागत और मूल्य आयोग (कमिशन फ़ॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड प्राइजेस CACP) की अनुशंसाओं के आधार पर एमएसपी तय करता है. इसके तहत अभी 23 फसलों की ख़रीद की जा रही है. इनमें धान, गेहूँ, मक्का और कपास आदि फसलें शामिल है.