यूपी निकाय चुनाव परिणाम का हिंदी चैनलों पर हुआ कवरेज भारतीय टेलिविजन इतिहास की रेयर घटना है. ऐसे कवरेज लोकसभा चुनाव में होते हैं. चैनलों पर ऐसी धूम विधानसभा चुनाव पर मचती तो एक बात थी. इस धूम-धड़ाके ने तीन सवालों के जवाब कौन देगा? इर्शादुल हक की कलम से
इस चुनाव में अगर भाजपा की जीत न हुई होती तो क्या ऐसा कवरेज मिलता? पत्रकारिता के छात्र भविष्य में इस पर जरूर शोध करेंगे.
चैनलों के एंकरों की शब्दावली देखिए तो ऐसा लग रहा था जैसे यूपी के इस चुनाव ने भारतीय राजनीति को हिला दिया हो. चैनल्स बता रहे थे कि यह परिणाम न सिर्फ मुख्यमंत्री योगी के आठ महीनों के काम पर मुहर लगाते हैं बल्कि 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की जीत के रास्ते बनाते हैं. कल सुबह से जब परिणाम आने शुरू हुए, तो देर रात तक चैनलों पर सिर्फ यूपी स्थानीय निकाय परिणाम पर योगी और मोदी के जादू का ही जिक्र था.
इस धूम ने कई सच्चाइयों और तथ्यों को पर्दे के पीछे ढ़केल दिया. लिहाजा इन तथ्यों को भी जान लेना चाहिए जिसको न्यूज चैनलों ने दबा दिया.
इन चैनलों से कुछ सवालों के जवाब पूछने की जरूरत है. लेकिन इस उम्मीद न कीजिए कि वह जवाब देंगे. क्योंकि वे ऐसे सवालों के जवाब देंगे ही क्यों जिन्हें वे दबाना चाहते हैं.
एक
यूपी में 16 में से 14 निगमों में भाजपा की जीत 2019 का ट्रेलर है तो उन्हें गुजरात जिला पंचायत चुनाव के नतीजों में क्या ऐसा ही दिखता है? 2015 में गुजरात जिला पंचायतों का रिज्लट भाजपा के लिए इतना भयावह था कि भाजपा के कई महारथियों की नींद उड़ गयी . 31 जिला पंचायतों में से भाजपा के 21 जिलों के किले ढ़ह गये थे. उन चैनलों से यह भी पूछिये कि 2015 में जब नरेंद्र मोदी को पीएम बने मात्र एक साल हुआ था तो गुजरात में यह दुर्गति क्यों हुई? और यह भी पूछिए और याद दिलाइए कि गुजरात, जो मिस्टर मोदी का गृह प्रदेश है, वहां फजीहतपूर्ण हार के समय क्या चैनलों ने इतना ही कवरेज दिया था?
यह भी याद कीजिए कि 2010 के चुनाव में जहां भाजपा ने 31 में से 30 जिला पंचायों में फतह हासिल की थी वहीं इसबार उसेकी सलतन 21 जिलों में ढ़ह गयी. कांग्रेस जहां पिछली बार मात्र एक जिले में सिमट कर रह गयी थी, इसबार उसने 21 जिलों में जीत का पताका लहरा दिया .
अगर यूपी के 2017 के निकाय चुनाव परिणाम 2019 के लोकसभा पर असर डाल सकते हैं तो, गुजरात के 2015 के स्थानीय चुनाव 2017 के विधानसभा चुनाव की तस्वीर क्यों नहीं पेश कर सकते?
दो
यूपी की ही बात करते हैं. 2012 में अखिलेश यादव ने विधानसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत प्राप्त किया था. यह चुनाव परिणाम चौंकाने वाला था. लेकिन ठीक उससे पहले यूपी में स्थानीय चुनाव हुए थे. निकाय चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने नगर निगम की 12 में से दस सीटें जीत ली थीं. लिहाजा इन चैनलों से और उनके विशेषज्ञ पैनलों से पूछिए कि तब भाजपा की इस शानदार जीत का असर विधानसभा चुनाव परिणामों पर क्यों नहीं पड़ा?
तीन
यूपी स्थानीय निकायों के चुनाव परिणाम को गौर से देखिए.एक दम बारीकी से. पता चलेगा कि 2014 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जितना वोट प्रतिशत मिला उससे काफी वोट प्रतिशत इस चुनाव में घटा है. दर्जनों सीटों पर सपा और बसपा ने इतनी बड़ी टक्कर दी कि बड़ी मुश्किल से भाजपा के प्रत्याशी जीत सके. सीटों की संख्या के लिहाज से भाजपा जरूर जीती लेकिन वोट प्रतिशत में भारी गिरावट क्या क्या मायने हैं? कुछ सीट की तो हालत यह थी कि वहां दो दो उम्मीदवारों को बराबर वोट मिले. और परणाम लॉटरी से निकाला गया. ये सवाल भी न्यूज चैनलों और उनके विशेषज्ञों से पूछिए. क्या वे इस पर कोई जवाब देंगे?
बिल्कुल नहीं देंगे. क्योंकि उनके एजेंडे का यह हिस्सा ही नहीं है.