ढाई हजार साल पहले भी भक्त बनना आसान था, मित्र बनना कठिन
जैन परंपरा की पहली महिला आचार्य और वीरायतन की संस्थापक आचार्य चंदना जी भक्त नहीं, मित्र बनने पर जोर देती हैं। क्यों भक्त से बड़ा होता है मित्र?
भगवान महावीर और बुद्ध के समय भी मित्र बनना कठिन था। भक्त बनने में किसी को कुछ देना नहीं है, बल्कि सुबह-शाम भगवान से कुछ-न-कुछ मांगना ही है। हमेशा हाथ पसारे रहना है। मैत्रीभाव के अपने खतरे भी हैं। आंबेडकर लिखते हैं कि बुद्ध के गृहत्याग की वजह वृद्ध और किसी का शव देखना नहीं थी, बल्कि पड़ोसी देश से युद्ध का विरोध थी।
आचार्य चंदना जी ने वीरायतन को अंतरराष्ट्रीय संस्था बना दिया है। उनका एक क्रांतिकारी नारा है-जहां जिनालय (पूजास्थल), वहां विद्यालय। वीरायतन के स्कूलों में समाज के सबसे कमजोर वर्ग के बच्चे पढ़ते हैं। उन्होंने धर्म-कर्म को नए ढंग से परिभाषित किया है।
वे मैत्रीभाव पर जोर देती हैं। वीरायतन की मासिक पत्रिका श्री अमर भारती में प्रभु की स्मृति और प्रभु का संदेश (दिसंबर, 2019) में वे लिखती है-प्रभु से एक जिज्ञासु ने पूछा-भंते, मैं आपका भक्त बनूं या सबका मित्र बनूं? बड़ा सुख मिलता है मुझे कि आपके चरणों में बैठकर आपकी पूजा करूं। प्रभु ने कहा-देवानुप्रिय, मेत्तिं भूएसु कप्पए। अर्थात सबसे मैत्री ही तुम्हारा कल्प आचरण हो।
इसे आचार्य चंदना जी समझाती हैं कि भक्त बनना आसान है। बैठे रहोगे और वंदना करते रहोगे। मांगते रहोगे-आरुग्ग बोहिलांभं, समाहिवर मुत्तमं दिंन्तु। अर्थात मुझे सुख दो, शांति दो, आरोग्य दो। लेकिन कठिन है मित्र बनना। मित्र बनने पर विकारों पर विजय प्राप्त करनी पड़ती है। अहंकार, लोभ, मान और माया पर जबतक विजय प्राप्त नहीं करोगे, मित्र कैसे बनोगे।
आचार्य चंदना जी कहती हैं कि हमने पंथों, संप्रदायों और वर्गों में तोड़-तोड़ कर अपने जीवन को विखंडित कर दिया है। मैत्री जोड़ना जानती है। उदारता से ही मैत्रीभाव का जन्म होता है।
डॉ. आंबेडकर की प्रसिद्ध पुस्तक है-भगवान बुद्ध और उनका धर्म। इसमें उन्होंने साक्ष्यों के आधार पर लिखा है कि सिद्धार्थ शाक्य वंश के थे। पड़ोस में कोलियों का राज्य था। दोनों राज्यों में रोहिणी नदी के जल बंटवारे पर हर साल विवाद होता था। शाक्यों के सेनापति ने कोलियों के खिलाफ युद्ध छेड़ने के लिए अधिवेशन बुलाया। सभा में सिद्धार्थ ने युद्ध का विरोध किया। वे अकेले पड़ गए। तब सेनापति ने सिद्धार्थ के सामने तीन विकल्प दिए। सिद्धार्थ युद्ध के प्रस्ताव को मान लें और सेना में भर्ती हो जाएं। दूसरा, फांसी पर लटकना या देश-निकाला स्वीकार करना तथा तीसरा सिद्धार्थ के परिवार का सामाजिक बहिष्कार तथा खेतों की जब्ती। सिद्धार्थ न पहला प्रस्ताव स्वीकार कर सकते थे न ही तीसरा। उन्होंने कहा कि चाहे फांसी दें या देशनिकाला। सेनापति को डर था कि सिद्रार्थ को फांसी या देशनिकाला की सजा देने पर कोशल नरेश हमला कर देंगे। तब सिद्धार्थ ने कहा कि वे परिव्राजक बन जाते हैं।
सिद्धार्थ ने अपने पड़ोसी देश के साथ मित्रता की बात की, जिसे तब अपराध घोषित कर दिया गया।