मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के काफिले पर शुक्रवार को भारी पत्थरबाजी हुई. कई अधिकारी घायल हुए. नीतीश को काफी मशक्कत के बाद सुरक्षित निकाला गया. पर मेनस्ट्रीम अखबारों ने इसे डाउन प्ले किया. क्यों? इ्रशादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम

 

किसी राज्य के मुख्यमंत्री के काफिले पर हमला हो जाये और दूसरे दिन अखबार में  उस खबर को पेज वन पर या तो जगह न मिले या मिले तो ऐसे कि पाठकों को समझने के लिए अतिरिक्त दिमाग लगाना पड़े. बक्सर के नंदन गांव में सैंकड़ों की भीड़ ने नीतीश के काफिले पर ईंट पत्थरों की भारी बारिश कर दी. पुलिस को आसमानी फायरिंग करनी पड़ी. काफिले की अनेक कारों के शीशे चकनाचूर हो गये. अनेक पुलिस अधिकारियों, पुलिसकर्मियों, अफसरों, स्थानीय लोगों और यहां तक कि स्थानीय विधायक को चोटें आयीं. सीएम नीतीश कुमार को चोट ना लगे, इसके लिए अफसरों ने उनके इर्द-गिर्द घेरा बनाना पड़े. हिफाजत से उन्हें निकालने के लिए खुद ईंट की चोट खानी पड़े. सर फूटे. पीठ और बाहों में भारी चोट पहुंचे. ये सब हो जाये तो स्वाभाविक है कि यह बड़ी खबर है. अखबारों के लिए यह खबर काफी मह्तवपूर्ण है. पठनीयता के लिहाज से भी यह खबर बहुत अहम है. ऐसी खबरों पर अमूमन स्पेशल पैकेज की स्टोरी की जाती है. लेकिन बिहार के ज्यादातर अखबारों में इस बड़ी खबर को डाउनप्ले करने की कोशिश की गयी. कुछ अखबारों ने तो ऐसी शीर्षक लगाई जिससे पढ़ने वाले को यह लग रहा है कि ईंट-पत्थर चलने की घटना कभी और की होगी, और आला अधिकारी अब उस मामले की जांच कर रहे हैं.

सोशल मीडिया पर कोहराम

मीडिया की ऐसी भूमिका कम वो बेश हर राज्य और यहां तक कि केंद्रीय राजधानी में भी है. बात बेबात की खबर प्राइमटाइम की बड़ी खबर बना दी जाती है, जबकि महत्वपूर्ण खबर उचित स्थान प्राप्त कर नहीं पाते. नीतीश पर हमले की खबर के साथ भी  ऐसा ही हुआ. ऐसा क्यों हुआ या फिर आम तौर पर ऐसा ही क्यों होता है. इसके मायने सुधी पाठक खूब समझते हैं. इसके पीछ किस तरह की बड़ी शक्तियां काम करती हैं और अखबार या चैनल्स कहां से कंट्रोल होते हैं, यह बहस अब बहुत मायने नहीं रखती. लेकिन जो महत्वपूर्ण सवाल है वह यह, कि लोकतंत्र में आम जन को सूचना के उनके हक से वंचित करने, या आधी सूचना देने की इस प्रवृति से अखबारों की विश्वसनीयता और पत्रकारिता की जिम्मादारियों पर सवाल उठता है.

खबरें न छुपेंगी, न दबेंगी

हालांकि यह नहीं भूलना चाहिए कि भले ही अखबारों ने उस हमले की खबर को डाउनप्ले किया पर सच्चाई यह है कि घटना के फौरन बाद से सोशल मीडिया पर इससे जुडी तस्वीरें, वीडियो और तमाम जानकारियों वायरल हो गयीं. फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सऐप पर लाखों लोगो ने कल ही यह तमाम सूचनायें प्राप्त कर लीं. वास्तव में यह संख्या अखबारों से पहुंचने वाली संख्या से कम थी या ज्यादा, इसका कोई तथ्यात्मक आकड़ा हमारे पास नहीं है, पर सोशल मीडिया तक लोगों की सूगमता जिस तेजी से बिहार में बढ़ चुकी है उससे तो यह कहा ही जा सकता है कि लाखों लोगों तक यह खबर पहुंच गयी. सारांश यह कि भले ही मेनस्ट्रीम के अखबार या कुछ चैनल इस घटना को डाउनप्ले करने की कोशिश करें पर हकीकत है कि डिजिटल मीडिया की क्रांति के इस युग में मेनस्ट्रीम मीडिया  पर लोगों की निर्भरता कम हुई है.

 

नीतीश के काफिले पर हमले की खबर, तस्वीरें और विडियो , घटना के कुछ देर बाद ही वायरल हो गयीं. सोशल मीडिया आम लोगों को यह अवसर देता है कि वह किसी मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकें. इस घटना पर भी वैसा ही हुआ. सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया आम तौर पर दो तरह की थी. एक वैसे लोगों की प्रतिक्रिया जो इस हमले की आलोचना कर रहे थे. दूसरी वैसे लोगों की प्रतिक्रिया जो नीतीश की राजनीति के समर्थनक नहीं हैं. ऐसे लोग इस हमले को घुमा-फिरा कर जायज ठहराने की हद तक चालाकी कर रहे थे. इस कटेगरी में कुछ नेता और जिम्मेदार लोग भी थे.

हमरा समाज सोशल मीडिया के इस्तेमाल के प्रति गैरजिम्मेदार रवैया अपनाता है, ऐसा भी नहीं है. लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी काफी है जो अपनी प्रतिक्रिया देने में  अपने विवेक के बजाये अपनी भावनाओं का इस्तेमाल करते हैं. यह गलत है. इसे कभी स्वीकार नहीं किया जा सकता. लोकतंत्र में विरोध के हिंसक तरीके को जायज नहीं ठहराया जा सकता.

उम्मीद की जानी चाहिए कि लोग अपने विचार रखने की आजादी का जरूर उपयोग करें, पर विवेक और जिम्मेदारी के साथ.

 

 

By Editor


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