सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्याभिचार विरोधी कानून रद्द कर देने के मामले पर गंभीर बहस है। इस आलेख मे तबस्सुम फातिमा बता रही हैं कि अदालत का ये फैसला महिलाओं को शोषण के महाजंजाल मे फंसा देगा…
क़ानून के फैसले इतनी तेज़ी से बरस रहे हैं कि कभी कभी लगता है, हम किसी और देश में आ गए हैं। महिलाओं की स्थिति आज भी बदतर है। बलात्कार की बढ़ती घटनाओं ने महिलाओं के भविष्य को संकट में डाल दिया है। महिलाओं के विवाहेत्तर संबंध पर क़ानून में महिलाओं की आज़ादी की बात की गयी है। आज़ादी एक ऐसा खिलौना है जिस से आज राजनीतिक पार्टियों से ले कर आम आदमी और क़ानून तक खेल रहा है। आज़ादी की लचर व्याख्या ने आज़ादी को मज़ाक़ बना दिया है।
महिला की गरिमा पर चोट करता है ये फैसला
मुख्य न्यायाधीश ने अपने फैसले में कहा कि धारा 497 लिंग आधारित घिसी-पिटी सोच है जिससे महिला की गरिमा पर चोट पहुंचती है। इसके अलावा इस धारा में संबंध बनाने के लिए पति की सहमति या सुविधा एक तरह से पत्नी को पति के अधीन बनाती है इसलिए ये धारा अनुच्छेद 21 मे मिले स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती है।
सत्ता का आज़ादी पक्ष इस क़ानून के बाद पुरुष को मिली आज़ादी को ही मज़बूत बनाएगा। विवाहेत्तर संबंध में महिला एक दूसरे पुरुष के सम्पर्क में आ कर क्या एक दूसरा घर बर्बाद नहीं करेगी ? एक की आज़ादी क्या दूसरी महिला के अधिकारों के हनन नहीं होगा ? एक बड़ा सवाल यह भी है कि हमारे समाज की महिलायें दो हिस्सों में विभाजित हैं। एक वर्किंग क्लास की महिलायें हैं। फ़र्ज़ करते हैं, उसके विवाहेत्तर संबंध को जानने के बाद भी उसका पति खामोश रह जाता है लेकिन अगर घरेलु महिलायें अपनी आज़ादी का फायदा उठाती हैं तो क्या उसका पालन पोषण करने वाला पति यह सब सह जाएगा ? क्या इस तरह की परिभाषाओं और व्याख्यायों से वैश्यावृति को बढ़ावा नहीं मिलेगा ? क्या हमारे समाज का संतुलन नहीं बिगड़ेगा ?
पुरुष भी इस स्थिति और मानसिकता का शिकार होंगे। बहुत से घरों की वर्किंग महिलायें ,अपने पतियों से अधिक कमाती हैं। क़ानून से मिली आज़ादी के बाद इन संबंधों में भी दरार बढ़ेगी।
जल्दबाज़ी मे सुनाया गया है ये फैसला
क़ानून की दृष्टि इस पूरे परिदृश्य को आज़ादी की आधी अधूरी परिभाषा के तौर पर देख रही है। लीव इन रिलेशनशिप या समलैंगिकता पर भी क़ानून ने जल्द बाज़ी में अपना फैसला सुनाया। क़ानून आज़ादी की मर्यादाओं से जल्दबाज़ी में गुज़र रहा है। एक तरफ हम अपनी सभ्यता को पीछे ले जा रहे हैं , दूसरी तरफ इतना आगे कि संस्कृति में विकार की जो सूरत पैदा होगी उस से उभरना आसान नहीं होगा। अभी भी इस देश में कितनी प्रतिशत महिलाएं आज़ाद हैं ?
विवादास्पद लेखिका तसलीमा नसरीन ने बंग्लादेश से भारत तक कई नामचीन लेखकों पर दैहिक शोषण के आरोप लगाये। स्त्री न बाहर आज़ाद है न घर में। समय के सभ्य पन्नों पर आज भी स्त्री केवल एक देह के रूप में मौजूद है। शताब्दियों से आज तक पुरूषों के लिए वह वासना और स्वाद भर है। जॉन एफ कनैडी से बिल क्लिंटन तक विश्व के बड़े नेताओं के सेक्स स्कैण्डल भी खबरों की सुर्खियों में रह चुके हैं। अपने देश में कानून निर्माताओं, सांसदों और विधायकों पर भी यौन शोषण और बलात्कार के कई मामले चल रहे हैं। पिछले ही वर्ष छः विधायकों पर महिला शोषण का आरोप लगा। इस स्याह तस्वीर में देश के पुरूषों की विकलांग होती मानसिकता को समझा जा सकता है।
देह की आज़ादी देकर क़ानून दरअसल पुरुषों को आज़ादी दे रहा है…गंगा और मैली होगी… इस बार क़ानून भी इस कलंक को धोने नहीं आएगा। औरत को आज़ादी ही देनी है तो सम्पूर्ण आज़ादी दो। वह आश्रमों में, सड़कों पर, दफ्तरों में, स्कूलों और कॉलेजों में व्यभिचार का शिकार न हो। उसे सम्पूर्ण आज़ादी दो कि कोई मर्द बिना उसकी इजाज़त के उसकी तरफ देख भी नहीं सके। जब तक सम्पूर्ण आज़ादी का सपना शेष है, कोई नियम-कानून औरत को आत्मनिर्भर नहीं बना सकता। वह जहां भी होगी, खौफ और आतंक के साये में होगी।
क्या दुनिया देश का कोई क़ानून औरत को उसके हिस्से की आज़ादी दे सकता है ?
यह प्रश्न पुरुष समाज से है और क़ानून से भी। मैं जानती हूँ ,इसका उत्तर कभी नहीं मिलेगा।