इस बार सात अगस्त खोलेगा OBC गोलबंदी के नए द्वार
सात अगस्त हर साल आता है, पर इस बार इसके खास होने की दो वजहें हैं। पहला, यह भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति की हवा निकाल सकता है, दूसरा, OBC गोलबंदी।
कुमार अनिल
सात अगस्त को मंडल दिवस कहते हैं। आज से 31 साल पहले सात अगस्त, 1990 को तब के प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मंडल कमीशन को लागू करने की घोषणा की थी। उसके बाद केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण मिलने लगा। हालांकि शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण के लिए पिछड़े वर्ग को 16 साल इंतजार करना पड़ा। यह 2006 में लागू हुआ।
इस बार सात अगस्त दो कारणों से खास हो गया है। पहला, आज सांप्रदायिक राजनीति जिस तरह उभार पर है, यह उसका जवाब हो सकता है। धर्म के नाम पर जनता को बांटने का जवाब हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी ने कल पांच अगस्त को खिलाड़ियों के पदक जीतने पर बधाई देते हुए भी उसे धारा 370 और राम मंदिर निर्माण से जोड़ दिया। इसी दिन ये दोनों निर्णय हुए थे। जनसंख्या नियंत्रण कानून, यूएपीए जैसे कानून का दुरुपयोग यह सब खास दिशा में संचालित है। अंग्रेज भी ऐसा कानून बनाते हिचकते थे, जिसमें किसी को भी जेल में डाल देने, बेल तक न होने का प्रवाधान हो। संस्कृति के नाम पर विज्ञान विरोधी विचारों को बढ़ावा दिया जा रहा है। कुल मिला कर आज धर्म के नाम पर राजनीति का यह एक मजबूत काट हो सकता है।
सात अगस्त का महत्व इस बार एक और कारण से बेहद खास हो जाता है। आपने गौर किया होगा कि जातीय जनगणना के सवाल पर बिहार और यूपी में भाजपा अकेली पड़ गई है। महागठबंधन ही नहीं, एनडीए के दल भी जातीय जनगणना के पक्ष में खड़े दिख रहे हैं।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जिस तरह विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव के प्रस्ताव पर प्रधानमंत्री से इस सवाल पर मिलने को राजी हो गए, यह साधारण बात नहीं है। हम के जीतनराम मांझी भी खुलकर जातीय जनगणना के पक्ष में बोल चुके हैं। इसका संदेश नीचे क्या गया है? नीचे आम पिछड़ों में एक स्तर की सहमति बनी है। इसी बात को उलटकर भी देखा जा सकता है। चूंकि आम पिछड़े भी चाहते हैं कि जातीय जनगणना हो, इसलिए ऊपर नीतीश कुमार की सहमति में यह परिलक्षित हो रहा है।
नीचे आम पिछड़ों की जातीय जनगणना के सवाल पर सहमति से भाजपा को नुकसान हो चुका है। आगे भाजपा जितना जातीय जनगणना का विरोध करेगी, वह उतना ही पिछड़ों में अपना आधार गंवाएगी।
अगर कल सात अगस्त का राजद का कार्यक्रम सफल होता है, तो यह पिछड़ों की गोलबंदी के नए दरवाजे खोलेगी।
दरअसल 2005 से 2020 तक का 15 वर्षों का काल पिछड़ों में बिखराव का काल रहा। भाजपा गैरयादव पिछड़ों को संगठित करने की रणनीति पर काम करती रही और उसे सफलता भी मिली। वह यह समझाने में कामयाब रही कि मंडल का सारा फायदा एक-दो जातियों ने ही उठाया।
अब डेढ़ दशक में एक बदलाव आया। नौकरियां ही नहीं हैं, तो छोटी-बड़ी सभी पिछड़ी जातियों के नौजवान बड़ी संख्या में बेरोजगार होते गए। इस बीच बैकलॉग भी बढ़ता गया। पिछड़ी जातियों के लिए पिछले सात वर्षों में ऐसी कोई योजना नहीं आई, जिससे व्यापक पिछड़ों के जीवन में कोई बड़ा बदलाव आए।
इसलिए आप राजद के कल के कार्यक्रम को मंडल-2 की शुरुआत कह सकते हैं। यह संदेश नीचे तक गया है कि जातीय जनगणना होने के बाद पिछड़ों का पिछड़ापन सामने आएगा और देश की विकास योजनाओं की दिशा बदलने की मांग उठेगी। इससे आबादी के सबसे बड़े हिस्से के जीवन में जो ठहराव आ गया है, 31 साल बाद उसमें बदलाव की गति फिर एक बार तेज होगी।