खगड़िया जिला जज की बेटी का प्यार में पड़ना तिल का ताड़ बन गया है. सैकड़ों लड़कियां रोज प्रेम में पड़ती हैं. जुदाई के दंश और प्रताड़ना सहती हैं. इस पर किसी की भंवे नहीं तनती. उलटे लड़की का पिता, प्रेमी पर अपहरण का केस ठोक देता है. पुलिस, प्रेमी को किडनेपर मानते हुए अरेस्ट करती है. मामला अदालत पहुंचता है. ऐसे मामलों में अदालत अपने विवेक से फैसला सुना देती है. कई बार प्रेमी जेल की सलाखों में भी पहुंच जाता है. प्रेमी जेल में तो प्रेमिका मां-बाप की प्रताड़ना गृह में पड़ी रहती है.
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम
लेकिन खगड़िया जिलाजज की बेटी के प्रेम का मामाला में जुडिसियल एक्टिविज्म यानी न्यायिक अतिसक्रियता की रेयर मिसाल बन गया है. हाईकोर्ट इस मामले में खुदसे संज्ञान लेता है. वह भी एक न्यूज वेबसइट की खबर को पढ़ कर. हाई कोर्ट जिला जज की बेटी को आनन फानन में पटना तलब करता है. जज साहब की बेटी, जो कभी चाणक्य लॉ युनिवर्सिटी की छात्रा थी, उसे युनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में फ्री में रखने के लिए युनिवर्सिटी को आदेश देता है. वह अगले पंद्रह दिनों तक गेस्ट हाउस में रहेगी. जिससे चाहेगी, मिलेगी. गोया प्रेमी, जो दिल्ली में वकालत करता है, वह भी मिल सकेगा.
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लड़की ने इससे पहले आरोप लगाया था कि उसके मां-बाप ने उसे घर में नजरंद कर रखा है. वह दिल्ली के एक युवक, जो वकालत करता है, से प्रेम करती है. वह बालिग है. उसे प्रेम करने का अधिकार है. मां-बाप को हस्तक्षेप का अधिकार नहीं. अदालत इस मामले में एक व्यस्क के निजी जीवन के बुनियादी अधिकारों के पक्ष में खड़ी है. इंसाफ का तकाजा भी यही है. अदालत के इस कदम से हर प्रेम करने वाले बालिग को प्रेरणा मिलेगी. पर गंभीर सवाल है कि क्या हर प्रेम करने वाले जोड़े के साथ हाई कोर्ट इसी जोश, इसी सक्रियता के साथ क्या खड़ा होगा? अखबारों में आय दिन भागी हुई प्रेमी जोड़ी की खबरे छपती हैं. पुलिस लड़की के पक्ष में खड़ी होती है, डरी सहमी लड़की लोकलाज के कारण पुलिस को वही बयान देती है, जिसके लिए मां-बाप उसे मजबूर करते हैं. नतीजा यह होता है कि प्रेमी किडनेपर घोषित कर दिया जाता है. अगर अदालत इसी तरह, जिस तरह जिला जज की बेटी की सुनवाई ंबंद कमरे में करे, तो लड़की अपने प्रेमी को जेल जाने से बचा ले, पर हमारी अदालतें इतनी सक्रिय तब क्यों नहीं होतीं?
अपनी बेटी के प्रेम प्रसंग के मामले में जिला जज एक पिता की तरह अदालत में गिड़गिड़ाते हैं. कहते हैं कि उनका पक्ष भी सुना जाये. ये सारी चीजें उन्हें बदनाम करने के लिए की गयी हैं. मुम्किन है अदालत ने बंद कमरे में उनकी भावनायें भी सुनी होगी. और तब लड़की को, मां-बाप से अलग करने का फैसला किया होगा.
काश अदालतें, इतनी ही सक्रिय हर प्रेम प्रसंग में होतीं. एक और सवाल हमारे मन में उमड़ रहा है. हाईकोर्ट में सैकड़ों मामले पेंडिंग पड़े होते हैं. समयाभाव में उनका निपटारा होने में बिलावजह देर होती है. क्या ऐसी गुंजाईश नही थी कि इस मामले को किसी निचली अदालत में निपटाया जाता? चूंकि मामला खगड़िया के जज से जुड़ा था, तो इस मामले को किसी अन्य अदालत में भेजने का इंतजाम किया जा सकता था क्या?