साहित्य सम्मेलन में आचार्य धर्मेंद्र ब्रह्मचारी और कीर्त्यानंद सिंह की जयंती पर आयोजित हुआ कवि–सम्मेलन
पटना,२८ सितम्बर। भारी वर्षा से जल–मगन हो रहे पटना पर आज कवियों ने भी छींटाकशी की और कहा – “जल कर नहीं, डूब कर रावण मरेगा अबके साल/ गांधी मैदान महा सागर बनेगा अबके साल“। अवसर था,मूर्द्धन्य साहित्यकार आचार्य धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री और स्तुत्य कला और साहित्य–संरक्षक राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह की जयंती पर आयोजित कवि–सम्मेलन का।
साहित्य सम्मेलन में आयोजित इस सारस्वत उत्सव का आरंभ जल–देवता के नमन से हुआ, जिसमें यह प्रार्थना की गई कि, नगर की स्थिति से आप अवगत हैं इंद्रदेव ! थोड़ा समझ–बूझ कर बरसिए!
वरिष्ठ कवि डा रमाकान्त पाण्डेय ने“वर्षा पानी,पानी–पानी/अंदर पानी, बाहर पानी/ ऊपर पानी,नीचे पानी/ पानी कहता राम कहानी/ देखो दुनिया आनी–जानी/नहीं था पानी, आया पानी/ बिन बादल के बरसा पानी“।
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए,सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्रनाथ गुप्त ने कहा कि, कीर्त्यांन्द सिंह स्वयं एक बड़े कवि थे। उनके परिसर में प्रायः हीं कवि–सम्मेलन और साहित्यिक गोष्ठियाँ होती थी। वे उदारता के साथ कवियों को सम्मानित और पुरस्कृत करते थे। वे एक–एक कविता के लिए सोने की अशर्फ़ी दिया करते थे।
आचार्य शास्त्री के पुत्र नरेंद्र कुमार ने अपने संस्मरणों के साथ पिता को श्रद्धांजलि दी और कहा कि, आचार्य जी का बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन से बहुत हीं गहरा लगाव था। सम्मेलन के उत्थान के लिए सदैव तत्पर रहते थे। हमें भी प्रेरित करते थे और उनके हीं कारण हम सभी भाई–बहन प्रायः ही सम्मेलन के आयोजनों में भाग लिया करते थे। शास्त्री जी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और साहित्य के पक्षधर थे। वे एल एस कौलेज मुज़फ़्फ़रपुर के प्राचार्य, बिहार आर्य प्रतिनिधि सभा के प्रधान, विद्यालय निरीक्षक आदि अनेक पदों पर कार्य किया।
अपने अध्यक्षीय उद्गार में सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि साहित्य में शोध की दृष्टि से आचार्य धर्मेंद्र ब्रह्मचारी शास्त्री का योगदान अविस्मरणीय है। प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियों पर किए गए उनके कार्य, साहित्य–संसार की धरोहर हैं। इस विषय पर,राष्ट्रभाषा परिषद द्वारा प्रकाशित उनकी शोध–पुस्तक विश्व के ३० बड़े विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में शोधार्थियों के लिए संदर्भ–ग्रंथ के रूप में उपयोग में लाई जा रही है।
उन्होंने राजा बहादुर कीर्त्यानंद सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, उन्हें कला,संगीत और साहित्य का महान संरक्षक बताया। डा सुलभ ने कहा कि बनैली राज की कीर्ति दूर–दूर तक उनके अवदानों के कारण फैली। उन्होंने साहित्य सम्मेलन भवन के निर्माण में दस हज़ार रूपए की राशि उस समय दी थी,जब यह देश स्वतंत्र भी नहीं हुआ था। वे एक सत्र के लिए सम्मेलन के अध्यक्ष भी बनाए गए थे। वे स्वयं एक कवि भी थे और उनका दरबार कवियों से सुशोभित होता था। आज उनके जैसे उदार दानियों और संस्कृति–संरक्षकों का अकाल पड़ गया है। यही कारण है कि, आज ये सारस्वत प्रवृतियाँ समाज में हासिए पर चली जा रही है।
डा सुलभ ने अपने अध्यक्षीय काव्य–पाठ का आरंभ इस मुक्तक से किया कि “जल कर नहीं डूब कर रावण मरेगा अबके साल/ गांधी मैदान महा सागर बनेगा अबके साल/ आँख में पानी कहाँ, यह तो है एक नरक निगम / चूल्लू भर पानी या आँचल चुनेगा अबके साल“। उन्होंने अपनी ग़ज़ल “तड़प है कि तलब है कि ज़िद है बाक़ी/यह दिल भी धड़कता है कि उम्मीद है बाक़ी” का भी सस्वर पाठ किया।
इस अवसर पर, किशनगढ़,राजस्थान की आध्ययात्मिक संस्था ‘ज्ञान मंदिर‘द्वारा ‘अध्यात्म कल्प–तरु‘ सम्मान से विभूषित किए