क्या सोशल मीडिया से सड़क पर आएगा आरक्षण का मुद्दा

आज सोशल मीडिया पर आरक्षण का मुद्दा गरमाया रहा। विपक्ष के बड़े नेता मैदान में कूद पड़े हैं। सवाल यह है कि क्या यह सोशल मीडिया से सड़क पर आएगा?

कुमार अनिल

केंद्रीय बजट के आंकड़ों की पहेलियां जैसे-जैसे खुल रही हैं, वैसे-वैसे नए मुद्दे सामने आ रहे हैं। चार दिन पहले बजट पेश होने के बाद ही स्पष्ट हो गया था कि केंद्र सरकार सरकारी उपक्रमों को बेचने, अपनी हिस्सेदारी कम करने की राह पर तेजी से बढ़ चुकी है। जाहिर है, जब सरकारी नौकरियां ही नहीं बचेंगी, तो आरक्षण संविधान में सिमट कर रह जाएगा।

कई बार मानवाधिकार, लोकतांत्रिक अधिकार के मुद्दे सोशल मीडिया में छा जाते हैं, लेकिन वे बुलबुले साबित होते हैं। इसके लिए केवल गोदी मीडिया को दोष देना काफी नहीं होगा कि वह पाकिस्तान का मुद्दा सामने कर देता है। हमारे समाज की सोच भी ऐसी है कि अगर कोई प्रतिरोध करता है, तो हम मुद्दे के बजाय उसकी जाति, उसका धर्म खोजने लगते हैं।

आज उठा आरक्षण बचाओ का मुद्दा नए संदर्भों के साथ उठा है। इस मुद्दे की धार को भी खत्म करने की कोशिश होगी। कल कोई नया मुद्दा खड़ा किया जा सकता है। अबतक भाजपा के किसी बड़े नेता ने इस मुद्दे पर कोई बात नहीं कही है। संभव है भाजपा की तरफ से बयान आए कि आरक्षण को कोई खत्म नहीं कर सकता। उसके बाद कहा जाएगा कि सरकार ने स्पष्ट कर दिया, अब क्या चाहिए?

आरक्षण का मुद्दा पहले भी उठा है। 2015 में आऱएसएस के प्रमुख के एक बयान पर आरक्षण बड़ा मुद्दा बन गया था। लेकिन इस बार संदर्भ भिन्न है। इस बार किसी के बयान से लोगों में उबाल नहीं आया है, बल्कि अर्थव्यवस्था के निजीकरण की राह पकड़ने की वजह से आया है। इसीलिए व्यक्ति के तौर पर कोई सामने नहीं है। सामने है भारत सरकार की नीतियां। जब सरकारी उपक्रम ही नहीं रहेंगे, तो आरक्षण कैसे और कौन लागू करेगा। चूंकि सामने कोई व्यक्ति नहीं है, इसलिए मुद्दे को जमीन पर उतारना भी आसान नहीं होगा। आरक्षण बचाओ मुहिम स्वतःस्फूर्त है। संघर्ष के लिए कोई राष्ट्रीय समन्वय समिति नहीं है। पीछे कोई संगठित ताकत नहीं है, इसलिए भी इसे आगे ले जाना आसान नहीं होगा।

फिर किसानों के आगे झुकी सरकार, तीन कदम पीछे हटी

मामले का दूसरा पक्ष यह है कि यह मुद्दा एक ऐसे समय सामने आया है, जब देश के किसान ऐतिहासिक आंदोलन कर रहे हैं। उस आंदोलन में भी सामाजिक न्याय के दायरे में आनेवाली आबादी ही सर्वाधिक है। देश में बेरोजगारों में असंतोष है। बिहार में कई संगठन रोजगार के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसलिए आरक्षण बचाओ का नारा सोशल मीडिया से सड़क पर उतर सकता है। राजद नेता तेजस्वी यादव ने खुलकर आरक्षण बचाओ मुहिम का समर्थन किया है। अगर सामाजिक न्याय और लोकतंत्र के हिमायती दल साथ आकर इस मुद्दे को उठाते हैं, तो मुद्दा सड़क पर आ सकता है। अगर विभिन्न किस्म के छोटे-बड़े संगठन राष्ट्रव्यापी समन्वय बनाते हैं, तब भी आंदोलन को गति मिल सकती है। इतना तो तय है कि सोशल मीडिया में लिख-बोलकर आरक्षण नहीं बचाया जा सकता।

By Editor


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