मोदी एयरपोर्ट बेच रहे, तो नीतीश ने बेच दिया श्मशान
पिछले जून में पीएम ने आपदा में अवसर की नई अवधारणा दी। फिर तीन कृषि कानून आया। पब्लिक सेक्टर का सेल लगा है। अब बिहार भी प्रधानमंत्री के नक्शेकदम पर बढ़ चला।
कुमार अनिल
यह नया भारत है। नेहरू-आंबेडकर ने देश को कल्याणकारी राज्य की अवधारणा दी। इसका अर्थ है राज्यसत्ता जनकल्याण के लिए कार्य करेगा। अब नए भारत में जनकल्याण के सिद्धांत को ताक पर रख दिया गया है और सबकुछ मुनाफे के लिए किया जा रहा है। स्कूल- कॉलेज, अस्पताल सबकुछ प्राइवेट हो रहा है। इस दिशा में ‘ऐतिहासिक कदम’ उठाते हुए बिहार सरकार ने श्मशान को भी निजी हाथों में देने का निर्णय ले लिया है।
बिहार सरकार के इस निर्णय से बिहार की छवि को गहरा धक्का लगा है। देशभर में श्मशान को निजी हाथों में देने की चर्चा है।
विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने बड़े तीखे शब्दों में बिहार सरकार के इस फैसले पर हमला बोला है। उन्होंने कहा- निकम्मी एनडीए सरकार ना जीवित लोगों को संभाल पा रही है और ना मृत। धिक्कार है ऐसी नकारा, निष्ठुर और बेशर्म सरकार पर।
बिहार सरकार के इस फैसले का सीधा असर गरीब वर्ग पर पड़ेगा। पहले जहां कुछ सौ में दाह-संस्कार हो जाता था, वहां अब दस हजार से ज्यादा रुपए देने होंगे।
लेखिका सुमन केसरी ने ट्विट किया-आपदा को अवसर में बदलें-कफन खसोटी इसी को कहेंगे न? अनेक लोगों ने इसी तरह बिहार सरकार को कफन का सौदागर तक कहा।
पहले एक सिद्धांत दिया गया कि जो संस्थान घाटे में चल रहा है, सरकार उसे बेचेगी। फिर मुनाफा देनेवाले संस्थानों को भी निजी हाथों में देने की तैयारी हो चली।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री और जेएनयू के वरिष्ठ प्राध्यापक प्रभात पटनायक ने इस संदर्भ में दो बातें कहीं हैं। पब्लिक सेक्टर सिर्फ सरकार की संपत्ति नहीं है। यह सामाजिक संपत्ति है। इसे बेचने की किसी सरकार को इजाजत नहीं होनी चाहिए। विशेष स्थिति में संसद में बहस हो।
यह तो सभी जानते हैं कि बीएसएनएल जैसे उपक्रमों को घाटे में चलनेवाला बताकर बेचा जा रहा है, जबकि घाटे में चलने के लिए खुद सरकार जिम्मेवार है। बीएसएनएल में कर्मी कम कर दिए गए, वह दूसरी कंपनियों से पिछड़ता गया।
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प्रभात पटनायक ने एक दूसरी अहम बात कही कि पब्लिक सेक्टर मुनाफा दे रहा है या नहीं, यह सरासर गलत पैमाना है। यह तो जनकल्याण के लिए बनाया गया, इसलिए इसे बेचने या रखने के लिए इसके मुनाफा देने- न-देने को आधार नहीं बनाया जा सकता।
इसी तरह अगर श्मशान घाट घाटे में हैं, तो उसे निजी हाथों में देने का तर्क बिल्कुल गलत है। पूंजी का चरित्र है जहां लाभ होगा, यह उधर जाएगी। अब कोविड के कारण मरनेवाले बढ़ गए, तो श्मशान में पूंजी लगानेवाले मिल जाएंगे, लेकिन क्या यह नेहरू-आंबेडकर के कलायणकारी राज्य की अवधारणा को बाय-बाय करना नहीं है? क्या आपदा में फंसी आबादी के साथ यह व्यवहार मानवीय कहा जाएगा?