पॉलिटकल थ्रिलर-सा है राजेन्द्र राजन का उपन्यास ‘लक्ष्यों के पथ पर’
प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र राजन के नए उपन्यास ‘लक्ष्यों के पथ पर’ पर विमर्श का आयोजन गांधी संग्रहालय में किया गया।
‘अभियान सांस्कृतिक मंच’ के बैनर तले विमर्श में राजेंद्र राजन के नए उपन्यास ‘लक्ष्यों के पथ पर’ के विभिन्न पहलुओं, आयामों पर बातचीत हुई। वक्ताओं ने बताया कि ‘लक्ष्यों के पथ पर’ के माध्यम से हम हम बेगुसराय और बिहार के राजनीतिक इतिहास से भी परिचित हो सकते हैं। अतिथियों का स्वागत जयप्रकाश ने किया जबकि संचालन गजेन्द्रकांत शर्मा ने किया।
कथाकार सन्तोष दीक्षित ने ‘लक्ष्यों के पथ पर’ पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा- लक्ष्यों के पथ पर आत्मकथात्मक उपन्यास है ऐसा संकेत नहीं मिलता। कथ्य के नएपन से उपन्यास आकर्षित करता है। यह उपन्यास जीवनीपरक ज्यादा है। सामंतवादी संस्कार से नायक किस प्रकार लड़ता है, सामाजिक ऊंच-नीच से कैसे लड़ता है इसकी जीवंत कहानी है।
पटना विवि में हिंदी विभाग के अध्यक्ष तरुण कुमार ने टिप्पणी की- जीवन के तर्क और साहित्य के तर्क एक ही नहीं होते। इस किताब में मुझे जीवन ज्यादा नजर आया। उनके पास अनुभव का जो विराट संसार है। एक बेचैनी वाले रचनाकार नजर आते हैं राजेंद्र राजन। कम्युनिस्ट आंदोलन भी कई बार आत्ममुग्धता का शिकार दिखाई देता है। मेरे गांव में 1976-77 में ‘ इंतकाम नहीं इंक्लाब चाहिए’ नाटक खेला गया था जो राजेंद्र राजन जी का लिखा था।
बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रवींद्रनाथ राय ने कहा- राजेन्द्र राजन के उपन्यास की कथा बेगुसराय की पृष्ठभूमि जनपद है। बेगुसराय भूमि संघर्षों की जमीन रही है। सामन्तों की गुंडवाहिनी द्वारा किस प्रकार रक्तरंजित लड़ाइयां करती है। एक ओर कांग्रेस की पतनशील संस्कृति है, बूथ कैप्चरिंग की घटना है दूसरी ओर कम्युनिस्टों की बड़े पैमाने पर कुर्बानी होती है। चन्द्रशेखर सिंह व सूर्यनारायण सिंह सरीखे त्यागी कम्युनिस्ट नेताओं की चर्चा उपन्यास में होती है। प्रेम का राग-विराग है तो बेदखली के विरुद्ध संघर्ष है, तस्करों के खिलाफ संघर्ष के साथ -साथ बेगुसराय के जनजीवन की चर्चा उपन्यास में दिखाई देता है।
माकपा सेंट्रल कमिटी के सदस्य अरुण मिश्रा, अवकाश प्राप्त पुलिस अधिकारी राज्यवर्द्धन शर्मा,अनिल कुमार राय ने भी अपने विचार रखे। प्रो अरुण कुमार, कवि सत्येंद्र कुमार, प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारी अध्यक्ष सुनीता गुप्ता, सामाजिक कार्यकर्ता सुनील सिंह ने भी उपन्यास पर चर्चा की।
राजेन्द्र राजन ने कहा ” अजेय ने कहा की लेखक अपनी रचनाओं से अलग कैसे रह सकता है ? कई लोगों ने उपन्यास पर लिखा है अपनी राय को प्रकट किया है। जो सवाल उठाए गए हैं उनके जवाब भी दिए गए हैं। यह बहस का विषय हो सकता है कि यह उपन्यास है या इतिहास। नामवर सिंह ने कहा है समकालीन लेखन हमारे आसपास के जमीन से निकलकर आना चाहिए। यदि निराशा बढ़ी है तो प्रतिरोध की शक्तियां भी बढ़ी है। आखिर यह सवाल तो बनता है कि हिंदी क्षेत्र का कोई साहित्यकार क्यों नहीं मारा गया ? जबकि दक्षिण के कई राज्यों के साहित्यकार व पत्रकार मारे गए।”
अध्यक्षीय वक्तव्य करते हुए आलोकधन्वा ने कहा ” यह उपन्यास तथ्यों पर आधारित है तथा दस्तावेज और साहित्य दोनों है। एक बेहद अवसाद भरे समय में यह उपन्यास आया है जिसमें कम्युनिस्टों की गाथा को चित्रित किया गया है। कम्युनिस्टों से अधिक कल्पनाशीलता व लालित्य कहां दूसरी जगह मिलती है ? ।” कार्यक्रम में बड़ी संख्या में पटना के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, रँगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि मौजूद थे।
प्रमुख लोगों में थे संजय चौधरी, अधिवक्ता मदन प्रसाद सिंह, अशोक कुमार सिन्हा, अराजपत्रित कर्मचारियों के नेता मंजुल कुमार दास, एटक के राज्य अध्यक्ष अजय कुमार, शिक्षाविद अक्षय कुमार, अनीश अंकुर , अवनीश राजन, समय सुरभि अनन्त के संपादक नरेंद्र कुमार सिंह, बी.एन विश्वकर्मा, सामाजिक कार्यकर्ता सुनील सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता नवेन्दु प्रियदर्शी , फिल्मकार अतुल शाही, कुणाल, गौतम गुलाल , नीरज कुमार, अर्चना त्रिपाठी, कुंदन कुमारी , कपिलदेव वर्मा, गोपाल शर्मा, संजय श्याम, रामबली व्यास, उमा कुमार, बेगुसराय प्रगतिशील लेखक संघ के रामकुमार, प्राथमिक शिक्षकों के नेता भोला पासवान, कमलकिशोर, मनोज कुमार, लड्डू शर्मा, सोनी कुमारी , विनीत राय, महेश रजक, मीर सैफ अली, डॉ अंकित आदि ।
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