मौजूदा राजनीति को अपने अनुकूल कितना मोड़ पायेंगे लालू?
साढ़े तीन साल बाद 5 जुलाई को राजद के स्थापना दिवस पर लालू प्रसाद सार्वजनिक उपस्थिति दर्ज करायेंगे. बदलते हालात को अपने अनुकूल कितना मोड़ पायेंगे?
सूर्यकान्त
बिहार में इस समय राजनीति घटनाक्रम तेजी से बदलती हुई दिख रही है। यह वह समय है जब बिहार में न तो विधानसभा चुनाव है और न ही आम लोकसभा चुनाव।
सबसे पहले तेजी से बदलते राजनीति में लोजपा के अंदर एक बड़ी टूट देखने को मिली जहां पूरी संसदीय पार्टी दिवंगत रामविलास पासवान जी के भाई पशुपतिनाथ पारस के साथ, तो पार्टी की कुछ अधिकारियों के साथ उनके बेटे चिराग पासवान के साथ रही। अब यहां कानूनी मामला फंसा है कि पार्टी किसकी है?
राजद; माफ कीजिए राष्ट्रपतिजी आपकी सैलरी तो करमुक्त है
लेकिन इस बीच में यह कयास लगाए जा रहें है कि बिहार के पारंपरिक पासवान वोटर चिराग के साथ बने रहेंगे। सतही तौर पर यह कयास लगाए जा रहे हैं कि लोजपा के टूट के पीछे जदयू का हाथ है।
सर्वविदित है कि विगत विधानसभा चुनाव में लोजपा अध्यक्ष चिराग पासवान ने खुलेआम नीतीश कुमार का विरोध करके जदयू को बड़ा नुकसान कर गए थे। साथ में चिराग स्वयं को पीएम नरेंद्र मोदी जी का हनुमान भी स्वयं को बताया था. अब यह देखना दिलचस्प रहेगा कि वर्तमान में चिराग पासवान किसके साथ खड़े रहेंगे?
जदयू भाजपा गठबंधन समय की मजबूरी है जो बना रहेगा तो जीतन राम मांझी और मुकेश साहनी भी वर्तमान लोजपा के टूट से कुछ दिन शांत ही रहेंगे। नीतीश कुमार हमेशा की तरह इस बार भी एक बड़े मौके पर अपनी चुप्पी साधे रहें। नीतीश कुमार की चुप्पी हमेशा से एक राजनीति बवंडर का काम करती है।
एक समय था जब नीतीश कुमार पीएम नरेंद्र मोदी के सबसे बड़े राजनीति विरोधी के रूप में सामने खड़े थे। फिर वह भी एक दौर था जब रामविलास पासवान जी ने गोधरा कांड के बाद एनडीए सरकार के मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था. राजनीति तेजी से बदलती है और नीतीश कुमार है यह सब भलीभांति जानते है।
इधर तेजस्वी यादव भी बदलते माहौल में चिराग पासवान से नजदीकी बढ़ा रहे हैं. उधर चिराग ने अभी तक मात्र शुक्रिया कह के जवाब दिया है.
अब यह देखना दिलचस्प रहेगा कि कौन किसके साथ आगे बढ़ता है। तेजस्वी ने यह कहकर राजनीति हवा को और गर्म किया की नीतीश सरकार 3 महीने में गिर जाएगी। इस बीच में एक बड़ी कड़ी लालू प्रसाद यादव जी है. जिन्हें बिहार के सियासत का चैंपियन कहा जाता है।भाजपा के प्रचण्ड चुनावी जीत के बाद यह भूलना नहीं चाहिए कि 2015 के विधानसभा चुनाव में लालू फैक्टर ने बिहार में भाजपा को धूल चटाने का काम किया। 1980 और 1990 के दशक की राजनीति को नजदीक से देखने वाले लोगों को याद होगा कि कैसे लालू प्रसाद यादव ने लालकृष्ण आडवाणी के रथ को रोक लिया था। राम मंदिर आंदोलन के दौरान लालकृष्ण आडवाणी की शोहरत उस वक़्त अपने शीर्ष पर थी लेकिन लालू ने आडवाणी जैसे महारथी का भी रास्ता रोक खुद को एक बड़े नेता की श्रेणी में खड़ा कर लिया।
अब यह देखने का समय है कि आने वाले दिनों में लालू प्रसाद कितने सक्रिय होते हैं और वह अपनी सक्रियता से बिहार की राजनीति को किस हद तक अपने अनुकूल मोडने में सफल होते हैं.
लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं और सामाजिक एवं राजनीतिक मुद्दों पे अपनी बातों को रखते रहते हैं।