Lalu tejashwiSurgical Strike: RJD की पांच भयंकर गलतियां और भविष्य में वापसी के 5 दमदार रास्ते

Surgical Strike: RJD की पांच भयंकर गलतियां और भविष्य में वापसी के 5 दमदार रास्ते

इर्शादुल हक के कॉलम Surgical Strike में पढ़िये कि RJD ने लोकसभा चुनाव में कौन सी 5 भयंकर गलतियां की और 2020 के विधानसभा चुनाव में उसकी दमदार वापसी के 5 महत्वपूर्ण विकल्प क्या हो सकते हैं.

 

Irshadul Haque
इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम

राष्ट्रीय जनता दल लोकसभा चुनाव में अपने प्रदर्शन के बदतरीन दौर में है. 5 जुलाई 1997 को अपनी स्थापना के बाद यानी 22 सालों में पहली बार है जब उसे लोकसभा में शून्य पर आउट होना पड़ा. एक समय राजद की लोकप्रियता बिहार से बाहर तक थी और यह राष्ट्रीय दल हुआ करता था. लेकिन 2008 में इसकी राष्ट्रीय मान्यता चुनाव आयोग ने समाप्त कर दी.

2019 का लोकसभा चुनाव राजद ने अपने सर्वमान्य नेता लालू प्रसाद की अनुपस्थिति में लड़ा. उम्मीद थी कि तेजस्वी यादव के डॉयनामिक लीडरशिप में यह शानदार प्रदर्शन करेगा. पर हुआ विपरीत. कांग्रेस, रालोसपा, हम और नयी नवेली व आधारहीन वीआईपी के साथ गठबंधन कर इसने चुनाव लड़ा. बिहार की 40 में से 39 सीटों पर गठबंधन की हार हुई. कांग्रेस ने एक सीट जीत कर अपनी इज्जत बचा ली. पर राजद सिफर पर आउठ हो गया.

 

आइए हम जानने की कोशिश करते हैं कि राज्य की सर्वाधिक जनाधार और वोट की ताकत वाले राजद ने कौन से पांच भयंकर गलतियां की जिसके कारण उसका जनाधार ताश के पत्तों की तरह धरासाई हो गया.

also read     RJD की दहाड़ पर झुकी Modi सरकार, युनिवर्सिटी नियुक्तियों के रोस्टर में बदलाव को हुई तैयार

एक

वीआईपी, हम और रालोसपा का आधार वोट नहीं हुआ ट्रांस्फर

जिस उत्साह के साथ राजद ने उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा , जीतन मांझी के हिंदुस्तान अवामी मोर्चा और विकासशील इंसान पार्टी के साथ गठबंधन किया था उसका विपरीत असर देखने को मिला. यहां तक कि उपेंद्र कुशवाहा के कुशवाहा समाज का वोट भी उन्हें ना के बराबर मिला. इसका सबसे जीवंत उदाहरण पश्चिमी चम्पारण लोकसभा सीट है. यहां से रालोसपा ने ब्रजेश कुशवाहा को चुनाव मैदान में उतारा था. नौकरशाही डॉट कॉम चुनाव परिणाम के बाद एक इंटेंसिव सर्वे इस सीट पर किया. हमने पश्चिमी चम्पराण के नौतन प्रखंड का जायजा लिया. यहां कुशवाहा और मलाह समाज की बम्पर आबादी है. हमने पाया कि यहां के कुशवाहा वोटरों का सत्तर प्रतिशत से ज्यादा वोट भाजपा को पड़े. गोया कुशवाहा बहुल इस क्षेत्र के खुद कुशवाहा वोटरों ने ब्रेजेश कुशवाहा को नकार दिया. यही हालत इस इलाके के मलाहों का रहा. इस इलाके में मलाह, तांती और नूनिया समाज की भी आबादी ठीक-ठाक है. इन तमाम समुदायों का 80 प्रतिशत से ज्यादा वोट भाजपा को पड़े. मतलब साफ है. ना तो उपेंद्र कुशवाहा के कुशवाहा होने या उनके कुशवाहा उम्मीदवार ब्रजेश कुशवाहा के चलते भी कुशवाहा वोट रालोसपा को नहीं आ सका. मलाहों ने तो रालोसपा ( महागठबंधन) को नकारा ही. वैसे भी मुकेश सहनी की मीडियायी या हवाई पकड़ जमीन पर थी ही कहां.

 

[box type=”shadow” ]नौकरशाही डॉट कॉम चुनाव परिणाम के बाद एक इंटेंसिव सर्वे इस सीट पर किया. हमने पश्चिमी चम्पराण के नौतन प्रखंड का जायजा लिया. यहां कुशवाहा और मलाह समाज की बम्पर आबादी है. हमने पाया कि यहां के कुशवाहा वोटरों का सत्तर प्रतिशत से ज्यादा वोट भाजपा को पड़े. गोया कुशवाहा बहुल इस क्षेत्र के खुद कुशवाहा वोटरों ने ब्रेजेश कुशवाहा को नकार दिया. यही हालत इस इलाके के मलाहों का रहा. [/box]

 

रही बात हिंदुस्तान अवामी मोर्चा के जीतन राम मांझी की बात.  वह गया से चुनाव लड़े. गया एक ऐसा संसदीय क्षेत्र है जहां उनके स्वजातीय मुसहरों की सर्वाधिक आबादी गया में ही है. नौकरशाही डॉट कॉम ने यहां भी चुनाव के बाद विशेष तौर पर मांझी समुदाय के वोटरों से बात की. यहां के मांझी समुदाय के लोगों ने जदयू को जम कर वोट किया. हालांकि उनकी पसंद जदयू के विजय मांझी भी नहीं थे. उन्होंने यहां नरेंद्र मोदी के नाम पर वोट दिया. संक्षेप में कहें तो मुसहरों का वोट जब खुद जीतन राम मांझी को नहीं मिला तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि बिहार के बाकी हिस्सों में महागठबंधन को इस समाज का वोट क्यों गया होगा.

Also Read     Surgical Strike: Begusarai के मीडियाई फसाने से अलग क्या है जमीनी हकीकत?

 

दो

अतिपिछड़ा फैक्टर

यह विडम्बना है कि राजद अतिपिछड़े समुदाय के वोटों और लीडरों को नहीं साध सका. जबकि उसे बखूबी पता था कि अतिपिछड़ी जातियों का वोट ही उसे जीत दिला सकता है. उसने मलाहा समुदाय को साधने के लिए मुकेश सहनी के रूप में एक ऐसे नेता को चेहरा बनाया जिसकी कोई ना तो जमीनी हैसियत थी और ना ही संगठन. राजद ने खुद 17 सीटों पर चुनाव लड़ा. पर उसने मात्र एक टिकट ब्लो मंडल के रूप में अतिपिछड़े समाज को दिया. वहीं एनडीए ने इस समाज के सात लोगों को टिकट दिया. ओबीसी में यादव, कुशवहा, कुर्मी तेली के बाद बाकी तमाम जातियां अतिपिछड़ा वर्ग में आती हैं. इनमें मलाह ( निषाद), धानुक, कलवार, नूनिया, केवट, गंगेयी, गोंसाई, गंगोता और चन्द्रवंशी सरीखी जातियां प्रभावशाली हैं. अतिपिछड़ों की समग्र आबादी 25-28 प्रतिशत तक मानी जाती है. इन तमाम जातियों ने जम कर एनडीए को वोट किया. यूं कहें कि एनडीए ने इन जातियों के वोट को हंसोत लिया.

 

तीन

पसमांदा मुसलमान का फैक्टर

 यह एक मान्य तथ्य है कि जब कम्युनल पॉलिटक्स अपने उफान पर होती है तो जातीय राजनीति की धार कुंद हो जाती है. 2019 का लोकसभा चुनाव इसका अपवाद नहीं था. लेकिन हर समुदाय चुनाव में अपना प्रतिनिधि चेहरा तलाशता है. मुसलमानों के पिछड़े समाज के लोगों को राजद की तरफ से ऐसा एक भी प्रतिनिधि चेहरा नहीं दिखा. राजद ने दिल खोल कर मुसलमानों को टोकट दिया. अररिया, सीवान, दरभंगा, शिवहर और बेगूसराय से पांच मुस्लिम चेहरे उतारे. इन पांच में   से एक सीट पर भी पसमांदा उम्मीदवार नहीं था. वैसे अररिया से सरफराज आलम तकनीकी रूप से पिछड़े समाज के हैं जरूर पर यह सीट कद्दावर नेता तस्लीमुद्दीन की विरासत की वजह से सरफराज को गयी न कि पसमांदा होने के कारण. खैर. जदयू के रणनीतिकारों ने पसमांदा फैक्टर को पर्दे के पीछे से खूब भुनाया. उसने मुसलमानों की टीम बनाई और उसे जमीन पर उतार दिया. हिदायत दी गयी कि पिछड़े मुसलमानों को टारगेट किया जाये. इसमें उसे सफलता भी मिली. पसमांदा वोटों के जमींदोज ट्रांस्फर का सबसे सटीक उदाहरण कटिहार है. यहां से महागठबंधन ने तारिक अनवर को उतारा था. यहां सुजापूरी और कुल्हैया जैसी पिछड़ी जातियां बहुतायत में हैं. 46 प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाले कटिहार में तारिक अनवर की शर्मनाक हार के पीछे पसमांदा मुसलमानों द्वारा उन्हें नकार दिया जाना भी एक कारण रहा.

 

चार

नेतृत्व का गैरलचीलापन रवैया

टिकट बंटवारे से ले कर चुनाव अभियान तक राजद नेतृत्व में लचीलापन का घोर अभाव दिखा. गठबंधन में पप्पू यादव को नकार देना, सुपौल में रंजीता रंजन के साथ असहोयग, दरभंगा में अली अशरफ फातमी की जगह अब्दुल बारी सिद्दीकी को थोपा जाना और कीर्ति आजाद का समायोजन नहीं किया जाना, शिवहर में एक गुमनाम (सैयद फैसल अली) को ऊपर से टपका देना जिनके लिए अपने पांच प्रस्तावक तक को पहचानना संभव नहीं था. नेतृत्व के स्तर पर ये ऐसी कमजोरियां थीं जो चुनाव परिणाम के रूप में आत्मघाती साबित हुईं.

उधर चुना अभान के दौरान कम से कम कांग्रेस के साथ राजद के तालमेल का घोर अभाव जनमानस में नकारात्मक संदेश देता रहा. गली चौराहों में लोग राहुल और तेजस्वी के एक मंच पर ना आ पाने को मुद्दा बनाते रहे. महागठबंधन के वोटरों में इस कारण मायूसी थी. हालांकि बाद के चरणों में दोनों नेता एक मंच पर आये. लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी.

 

पांच

तेज प्रताप का विद्रोही रुख

हालांकि तेजप्रताप के विद्रोही रुख को राजद नेतृत्व चाहता तो काफी हद तक नियंत्रित कर सकता था. तेज प्रताप ने शिवहर में अपने उम्मीदवार देने पर अड़े थे. सैयद फैसल जैसे राजनीति में गुमनाम शख्स की जगह तेजप्रताप के उम्मीदवार को राजद उतार सकता था. इसके बदले जहानाबाद और गोपालगंज में उनके विरोध के स्वर को रोका जा सकता था. जहानाबाद में राजद उम्मीदवार की महज 17 सौ वोटों से हार तेजप्रताप के उम्मीदवार की वजह से हुई, इसे कौन नकार सकता है?

 

ये पांच बडे कारण थे जिसका खामयाजा आम तौर पर महागठबंधन और खास तौर पर राजद को उठाना पड़ा.

 

2020 की तैयारी 

लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अब आगे क्या होना चाहिए ?

 

हम यह भलिभांति जानते हैं कि लोकतांत्रिक राजनी में कोई फुलस्टाप नहीं होता. हां कौमा जरूर होता है. लोकसभा चुनाव महागठबंधन के लिए महज एक कौमा है. आगे उसके लिए असीम संभवानायें हैं. आइए देखते हैं कि महागठबंधन को 2020 विधानसभा चुनाव के लिए किन रणनीतियों पर फोकसर करना चाहिए.

 

एक

अतिपिछड़े नेतृत्व की तलाश

2019 लोकसभा चुनाव परिणाम ने यह साबित कर दिया है कि राजद का एमवाई समीकरण कुछ कमीबेशी के बावजूद  मजबूत ही है. हालांकि यादव वोटरों का एक भाग जरूर राजद से खिसका है. यादवों के इस वर्ग का खिसकना कोई अचरज की बात भी नहीं है. विगत 15-20 वर्षों में यादव, अगड़ी जातियों की तरह सत्ताधारी समुह के रूप में विकसित हुआ है. इस वर्ग को हर हाल में सत्ता से चिपके रहने की लत है. ऐसे वर्ग में विचारधारा महत्वपूर्ण नहीं है. इस वर्ग ने राजद से दूरी बनाई. वैसे कुल मिला कर एमवाई इक्वेशन राजद के साथ ठीक-ठाक ही माना जायेगा. पर इस इक्वेशन की अधिकतम सीमा 31 प्रतिशत तक ही सीमित है. लिहाजा अतिपिछड़े वर्ग में पैठ और इस वर्ग को अनुपातिक नेतृत्व देने का साहसिक फैसला लेना राजद के लिए अब अरिहार्य है.

दो

पसमांदा मुसलमानों की भागीदारी

मुसलमानों को ले कर राजद का एक स्वाभाविक असमंजस हमेशा से कायम है. वह मुसलमानों को एक युनिट मानते रहने की हमेशा मुगालता कर बैठता है. पिछले तमाम चुनावों को देखें तो वह मुसलमानों को प्रतिनिधित्व के स्तर पर तो अनुपातिक नेतृत्व देता रहा है. इसके लिए तेजस्वी यादव के साहस की सराहना भी हुई  है पर इस प्रतिनिधित्व में पिछड़े मुसलमान नहीं दिखते. नीतीश कुमार इसी को भुनाते रहे हैं. हालांकि उन्होंने भी पिछले दो चुनावों से इस वर्ग को प्रतिनिधित्व के स्तर पर नकारा है पर जमीनी स्तर पर उनके दावे अलग होते हैं. पंचायतों में अतिपिछड़ों को रिजर्वेशन दे कर पसमांदा मुसलमानों को आगे करने या राज्यसभा में कहकशां परवीन या एजाज अली जैसों को भेजने की बात उनकी पार्टी अब भी भुनाती है. हकीकत यह है कि पिछड़े मुसलमानों को प्रतिनिधत्व ना दिया जाना साइलेंट असर डालती है. राजद नेतृत्व को इस ओर मजबूती से ध्यान देना होगा.

 

तीन

लोकसभा और विधानसभा चुनावों की अलग प्राथमिकता

 

भले ही लोकसभा चुनाव में राजद का वोट आधार 15 प्रतिशत पर खिसक आया है. पर विधानसभा चुनाव के अपने अलग एजेंडे होते हैं. राजद के ग्राफ पर गौर करें तो हम पाते हैं कि कुछ अपवाद को छोड़ कर अकसर वह लोकसभा चुनाव से बढ़िया प्रदर्शन विधानसभा चुनाव में करता है. पिछड़ों की हकमारी, दलितों का दमन वा जातीय शोषण जैसे मुद्दे ऐसे इश्युज हैं जिसके खिलाफ मजबूत आवाज के तौर पर लोग राजद को ही देखते हैं. लिहाजा बहुजनवादी राजनीति को मजबूती देना समय की महत्वपूर्ण मांग है क्योंकि आने वाले एक सालों में एनडीए सरकार जो सबसे बड़ी गलतियां इसी डोमेन में करने वाली है.

 

चार-

गांव-खिलहान तक आंदोलन

 

राजद को जल्द ही विशेषज्ञों की एक बड़ी टीम बनानी चाहिए. इस टीम में नये चेहरे और नयी पीढ़ी के नॉन पॉलिटिकटल स्कॉलरों को भी शामिल करना चाहिए. राज्य के चप्पे-चप्पे में जा कर यह टीम सर्वे करे और सामाजिक न्याय व सेक्युलरिज्म से आगे निकल कर जनसरोकार से जुड़े नये मुद्दों की तलाश करे. यही मुद्दे 2020 विधानसभा चुनाव के लिए मील का पत्थर साबित होंगे. इन मुद्दों की तलाश के बाद राजद नेतृत्व इसे प्राइम एजेंडे के रूप में ले कर खेत-खलिहानों में कूद पड़े और दीर्घकालीन आंदोलन की शुरुआत करे. जमीन से जुड़े इन मुद्दों में इतनी ताकत होगी कि  इसकी बदौलत सत्ता की चूलें हिल सकती हैं.

 

पांच-

पारिवारिक विवाद पर हो नियंत्रण

 

हर परिवार में आपसी खीचतान एक स्वाभाविक और फितरी बात है. पर पारिवारिक मुद्दे अगर राजनीतिक स्तर पर हावी होने लगें तो इसका नुकसान पार्टी पर होना भी अवश्यंभावी है. तेज प्रताप यादव द्वारा कालांतर में अनेक ऐसे मुद्दे उठाये गये हैं जिसका अल्टीमेटली पार्टी को नुकसान उठाना पड़ा है. राजद नेतृत्व को इस मुद्दे का मजबूती से स्थाई हल निकालना चाहिए.

By Editor


Notice: ob_end_flush(): Failed to send buffer of zlib output compression (0) in /home/naukarshahi/public_html/wp-includes/functions.php on line 5427