SaatRang : देश के हर लेबर चौक पर मिलेंगे उदास बिहारी मजदूर
नीतीश कहते थे उनका सपना है देश की हर थाली में एक बिहारी व्यंजन हो। यह सपना पूरा नहीं हुआ, पर 5 साल बाद देश के हर चौराहे पर उदास बिहारी मजदूर जरूर मिलेंगे।
कुमार अनिल
आज से 12 साल पहले नीतीश कुमार हर सभा में विकसित बिहार का सपना बेचा करते थे। कहते थे कि उनका सपना है कि देश की हर थाली में कम से कम एक बिहारी व्यंजन अवश्य हो। उन्होंने कृषि विकास और किसानों की खुशहाली का रोडमैप भी पेश किया था। आजकल वे अपने सपने की बात नहीं करते। विकसित बिहार, खुशहाल किसान तो नहीं हुए, पर एक बात तय है कि पांच साल बाद देश के हर लेबर चौक पर उदास बिहारी मजदूर जरूर मिलेंगे।
नीतीश कुमार के शासन में सरकारी स्कूलों और शिक्षा पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है, जिसकी चोट प्रदेश के दलितों-पिछड़ों पर सर्वाधिक पड़ी है। गरीब सवर्ण पर भी चोट पड़ी है। जबसे कोरोना महामारी आई है, उसके बाद सरकारी स्कूलों की पढ़ाई की एक तरह से हत्या ही कर दी गई है।
पांच साल परिणाम क्या होगा? एक साल किसी बच्चे की पढ़ाई छूट जाए, तो फिर उसका मन पढ़ाई में नहीं लगता है। बहुत कम छात्र फिर से उसी लय में पढ़ाई कर पाते हैं। यहां पिछले दो साल से सरकारी स्कूलों के बच्चों की पढ़ाई बंद है। बिहार का जो समृद्ध हिस्सा है, उसके बच्चे ऑनलाइन क्लास कर रहे हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों के बच्चे क्या करें? नीतीश कुमार इंजीनियर हैं, लेकिन आश्चर्य उन्होंने इन गरीब बच्चों की पढ़ाई के लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं की। इस मुद्दे पर कोई चर्चा ही नहीं हुई। चाह होती, तो राह निकल जाती।
नोबेल पुरस्कार प्राप्त अमर्त्य सेन की किताब है-Home In The World। इस पुस्तक में उन्होंने 1943 में बंगाल में आए अकाल का विस्तार से जिक्र किया है। वहां 20 से 30 लाख लोग भूख से बिलबिला कर मर गए थे। बंगाल नदियों के जाल में बसा है। बारिश भी हुई, उपज भी हुई, फिर अनाज कहां चला गया? सेन ने भुखमरी, अकाल की वजह बताई है। विश्वयुद्ध चल रहा था। भारी संख्या में अंग्रेजी सिपाही कोलकाता के आसपास जमा किए गए थे। अंग्रेजी सरकार इनके लिए अनाज बंगाल के ग्रामीण बाजारों से खरीदती थी, चाहे जिस कीमत पर। इससे महंगाई इतनी बढ़ी कि अनाज गरीबों की पहुंच से बाहर हो गई। तब के अंग्रेजी अखबार इस खबर को विश्व युद्ध की आड़ में छुपाते रहे। उनका मानना था कि ब्रिटेन की जीत के लिए महंगाई और भूख सहनी पड़ेगी। लंदन तक यह खबर ही नहीं पहुंची। पहुंची तब जब विश्वयुद्ध खत्म हो गया। जाहिर है सरकार की नीतियों के कारण लोगों को भूख से मरना पड़ा। आत्मसम्मान बेचना पड़ा।
बिहार सरकार ने न सिर्फ महंगाई से परेशान गरीबों की जेब में नकद जाए, इसके लिए कोई इंतजाम नहीं किया और न ही गरीब के बच्चे पढ़ाई जारी रख सकें, इसके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था की। नतीजा सामने हैं।
आज जो बच्चा पांचवी-छठी में पढ़ रहा है, पांच साल बाद वह देश के किसी लेबर चौक पर दिहाड़ी के लिए हाथ जोड़े खड़ा होगा। एक छोटा हिस्सा अपराध, अवैध शराब के धंधे में लग जाएगा। जिस बिहार का अतीत समृद्ध है, उसका भविष्य क्या होगा, सोचिए!
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