सरकार का अभद्र रवैया बिहार के शिक्षकों को हर दिन एक नई मुसीबत में डाल रहा है. ज्यादा पुरानी बात नहीं है कि सरकार द्वारा सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को खुले में शौच करने वाले लोगों की फ़ोटो खींचने की ड्यूटी दी गई थी.
कामरान गनी 
राज्य सरकार की इस मुहीम की न केवल प्रदेश बल्कि देश-विदेश में ज़बरदस्त खिल्ली उड़ाई गई. बाद में सरकार को अपना आदेश वापस लेना पड़ा.
अब एक बार फिर “लोहिया स्वच्छ बिहार अभियान” के नाम पर शिक्षकों को एक ऐसे काम के लिए बाध्य किया जा रहा है जो उनकी शान और मर्यादा के खिलाफ़ है. पंचायत स्तर पर शौचालय निर्माण हेतु सर्वेक्षण के लिए शिक्षकों को घर-घर जाकर शौचालयों की गिनती का काम दिया गया है. सरकार की इस मुहीम के खिलाफ यहाँ के शिक्षकों में ज़बरदस्त आक्रोश है. शिक्षकों का मानना है कि सरकार जान-बूझ कर शिक्षकों को पठन-पाठन से हटा कर ऐसे कामों के लिए बाध्य कर रही है जो उनकी मर्यादा की खिलाफ हैं.
सरकार का तर्क है कि यह एक समाजी कार्य है जिसके करने में कोई बुराई नहीं है लेकिन प्रश्न यह है कि इस तरह के समाजी कामों के लिए बार-बार शिक्षकों को ही बाध्य क्यूँ किया जा रहा है? समाजी कार्य का दावा करने वाले नेताओं को इन कामों में क्यूँ सम्मिलित नहीं किया जाता?
सरकारी स्कूलों में पठन-पाठन की स्थिति कितनी दयनीय है यह किसी से ढका-छुपा सत्य नहीं है. ऐसे में शिक्षकों को  दुसरे कामों में उलझा कर सरकार क्या सन्देश देना चाहती है?
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अधिकतर सामाजी बुराइयों का कारण अशिक्षा है. सरकार को चाहिए कि वह शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए मुहिम चलाए क्यूंकि अगर समाज शिक्षित होगा तो स्वछता भी होगी और शालीनता भी.
(लेखक उर्दू नेट जापान के भारत में मानद संपादक और त्रि-मासिक पत्रिका दरभंगा टाइम्स के सहायक संपादक हैं)

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