तेजस्वी यादव ने बिहार के अखबारों से पूछा है कि सबसे बड़ी पार्टी के नेता होने के बावजूद उनके ज्यादातर बयान अखबार क्यों नहीं छापते? यह सवाल अपनी जगह जायज है पर तेजस्वी को इस बात पर संतुष्ट होना चाहिए कि भले ही उनके बयान न छपे पर उनके आक्रामक बयान सोशल मीडिया पर इतना धमाल मचा देते हैं कि भाजपा व जदयू के नेता बौखला कर अपनी प्रतिक्रिया अखबारों में जरूर छपवा लेते हैं.
[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक, एडिटर, नौकरशाही डॉट कॉम, फॉर्मर इंटरनेशनल फेलो , फोर्ड फाउंडेशन[/author]
कुछ तथ्य
पहला– हिंदी अखबारों के कई सुधी पाठक यह सवाल अनेक बार पूछते हैं कि सुशील मोदी व जदयू प्रवक्ता संजय सिंह के अंदर ऐसा क्या है कि उनके बयान लगभग हर दिन अखबारों में फोटो के साथ छपते हैं. यही सवाल अखबारों के अंदर जूनियर पत्रकार खुद आपस में एक दूसरे से पूछते हैं पर उन्हें उसका संतोषप्रद जवाब नहीं मिल पाता. इसकी वजह यह है कि ऊपर बैठे पत्रकार, जिन्हें इस सवाल का जवाब मालूम है, उनसे ये जूनियर पत्रकार ऐसा सवाल करने का साहस नहीं जुटा पाते.
दूसरा तथ्य-अखबारों के दफ्तरों के बाहर वरिष्ठ पत्रकारों और बिहार की पत्रकारिता पर गहरी नजर रखने वाले बुद्धिजीवियों को इस सवाल का जवाब खूब मालूम है. लिहाजा वे इस सवाल पर खूब चुस्कियां लेते हैं और अखबारों के प्रबंधन की बेबसी पर चटखारे लेते हैं. फिर पुराने दिनों की याद करते हुए कहते हैं कि तब अखबार के वरिष्ठ पत्रकार इतने बेबस नहीं थे और न ही अखबार के मालिकान कि कोई उन्हें बयान छापने के लिए मजबूर कर दे.
अब घटना का जिक्र सुनिये
बहुत दिन नहीं हुए. बस कुछ महीने पहले की बात है. पटना के एक हिंदी अखबार में नये सम्पादक ने ज्वाइन किया. उन्होंने चार पांच दिनों के अखबारों पर गौर करने के बाद अपने निकटतम सहयोगी से पूछा कि इस अमुक नेता( नेता का नाम पाठक खुद तय कर लें) का बयान इतनी प्रमुखता से हर दिन क्यों छापा जाता है? इसे रोकिये. सम्पादक के सहयोगी ने कहा कि सर इस नेता का बयान पिछले एक दशक से कभी नहीं रोका जा सका. इसे छापना अनिवार्य है. इस जवाब को सुनते ही सम्पादक का ईगो हिलोरें मारने लगा. उन्होंने आदेश दिया कि इस नेता के बयान के प्रकाशन पर तत्काल रोक लगाई जाये. और अगर कभी बहुत जरूरी बयान हो तो उस प्रेस विज्ञप्ति को सीधे मेरे टेबल पर पहुंचाया जाये. सम्पादक के हुक्म की तामील की गयी और लगातार पांच-छह दिनों तक उक्त नेता का कोई बयान उस अखबार में नजर नहीं आया. लेकिन अगले हफ्ते से ही उक्त नेता के बयान बदस्तूर फिर छपने लगे. उनके सहयोगी ने इस पर सम्पादक से कोई सवाल किया या नहीं, मुझे नहीं मालूम लेकिन उक्त सम्पादक को बिहार की सत्ताधारी राजनीतिज्ञों की ताकत का एहसास हो गया.
तीन बातें जो तेजस्वी भी जानते हैं
नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव को अखबारों के अंदर की ये सारी कहानियां बखूबी पता हैं. पिछले पांच छह सालों में उन्होंने अखबारों के रवैये को कम से कम तीन हैसियत से देखा व महसूस किया है.
पहला- जब वे राजनीति में कदम रख रहे थे. उस समय अखबारों के अंदर की पेचीदगियों से बेपरवाह तेजस्वी इस बात की बहुत चिंता नहीं करते होंगे कि अखबारों में उन्हें जगह मेलेगी या नहीं.
दूसरा- जब वह उपमुख्यमंत्री बने तो अखबारों के लिए उनकी खबरों को प्राथमिकता देना लगभग अनिवार्य था. यह उनके पद के कारण था.
तीसरा- लगभग डेढ़ वर्ष बाद जब निजाम बदला और तेजस्वी विपक्ष में आ गये. तब अखबारों का रवैया भी बदल गया. उनके बयानों को अपनी सुविधा और पत्रकारीय लोक-लाज ( आंशिक ही सही) के कारण कभी-कभी जगह मिलती रही. लेकिन अखबार जिन सुधी पाठकों की बदौलत जिंदा हैं उन्हें यह पता है कि 2015 से अब तक अगर कुछ जस का तस कायम है तो वह है सुशील मोदी और जदयू प्रवक्ताओं की खबरों का प्रकाशन. 2015 के विधानसभा चुनाव को हारने के बावजूद अगर किसी एक नेता का बयान बदस्तूर प्रमुखता से छपता रहा तो उनका नाम है सुशील मोदी. इस श्रेणी में दूसरा नाम, नेता जदयू के एक प्रवक्ता का आता है.
तेजस्वी के लिए विकल्प
लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के बीच एक पीढ़ी का फासला है. इस फासले ने तेजस्वी के सामने एक मजबूत विकल्प दे रखा है. यह विकल्प सोशल मीडिया का विकल्प. लालू प्रसाद के करियर के शुरुआती दौर में सोशल मीडिया नहीं था. लालू को भी अखबारों से ऐसी ही शिकायतें थीं. तब लालू की यह शिकायत हुआ करती थी कि अखबार उनकी बातों को तोड़-मोरोड़ कर छापते हैं. अखबारों के रवैये से खिन्न लालू ने एक बार फैसला कर लिया था कि वे गरीबों के लिए एक अखबार निकालेंगे. उन्होंने नाम की भी घोषणा कर दी थी- ‘गरीब दर्पण’. लेकिन वह इस प्रोजेक्ट पर आगे नहीं बढ़ सके.
तेजस्वी ने कभी अखबारों के रवैये से परेशान हो कर इस लाइन पर सोचा या नहीं, ये वही जानें. पर उनके लिए सकारात्मक पक्ष यह है कि उनके सामने सोशल मीडिया एक ताकतवर टूल के रूप में मौजूद है. उसका वह बखूबनी इस्तेमाल कर भी रहे हैं. न सिर्फ वह बखूबी इस्तेमाल कर रहे हैं बल्कि आज तेजस्वी ने फेसबुक और ट्विटर की दुनिया में ऐसी धूम मचा रखी है कि उनके सामने नीतीश और सुशील मोदी जैसे नेता कहीं नहीं टिकते. फेसबुक और ट्विटर की दुनिया पर नजर रखने वालों को पता है कि तेजस्वी के आक्रामक पोस्ट को जिस तरह से हजारों लोग लाइक, शेयर और कमेंट करते हैं उतनी लाइक्स न तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पोस्ट को मिलती है और न नहीं सुशील मोदी के पोस्ट को.
इस तथ्य का एहसास भाजपा नेता सुशील मोदी व जदयू के प्रवक्ताओं को बखूबी है. उन्हें यह भी पता है कि भले ही तेजस्वी के बयान अखबारों में न छपें पर युवा पीढ़ी के लाखों लोगों तक तेजस्वी के आक्रामक बयान सोशल मीडिया के माध्यम से पहुंच ही जाते हैं. इसलिए ये दोनों नेता उनके बयान पर अपनी प्रतिक्रिया अखबारों में व्यक्त करते हैं.
आखिरी सवाल
तेजस्वी ने एक बयान जारी कर अखबारों से पूछा है कि उनके बयान को अखबार ( सम्पादक) प्रकाशित करना उचित नहीं समझते वो इतना तो मैनेजमेंट को कन्विंस कर सकते है कि राज्य की सबसे बड़ी पार्टी के 80 विधायकों के नेता को 80 लाइन नहीं तो 80 शब्द तो बनते हैं
इस पूरे मामले में एक सवाल यह भी है कि अखबार के पत्रकार भले ही प्रबंधन को कंविंस कर लें. पर उस सत्ता को कैसे कंविंस कर सकते हैं जो यह तय करने लगे कि किस व्यक्ति या किस नेता की खबर कितनी या कैसे छापी जाये.