Upendra Kushwaha politics of powerउपेंद्र कुशवाहा मोमिन की गजल क्यों बन गये हैं जो 'साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं'।

उपेंद्र कुशवाहा मोमिन की गजल क्यों बन गये हैं जो ‘साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं’।

[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक, एडिटर नौकरशाही डॉट कॉम[/author]

उपेंद्र कुशवाहा बिहार की मौजूद सियासत में सब से ज्यादा दुविधाओं से भरे नेता के रूप में चर्चित हो चुके हैं. एनडीए या महागठबंधन में से किसके साथ रहें वह क्लियर नहीं कर पा रहे हैं.  वह ना तो पूरी तरह से छुप रहे हैं और ना साफ तौर पर सामने आ रहे हैं. उनकी हालत मोमिन की गजल के इस शेर की तरह हो चुकी है- साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं/ बा अस ए तर्क ए मुलाकात बताते भी नहीं।

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कुशवाहा की यह हालत कमोबेश तबसे है जब से नीतीश कुमार भाजपा गठबंधन का हिस्सा बने हैं। कभी यदुवंशियों और कुशवंशियों की खीर और दस्तरख्वान के नाम पर भाजपा की सांसी टांगते नजर आते हैं तो कभी ‘शिक्षा की बदहाली’  के खिलाफ आवाज उठा कर नीतीश कुमार को ललकारते हैं. लेकिन दूसरे ही पहल जोरदार तरीके से ऐलान करते हैं कि वह भाजपा गठबंधन में हैं और रहेंगे. तीसरे ही पल वह नरेंद्र मोदी को दोबारा प्रधानमंत्री के रूप में देखने की हसरत बयान कर देते हैं. कुशवाहा के इस जिगजाग मोशन से महागठंधन और एनडीए दोनों कंफ्युज्ड हैं. कई बार तो ऐसा हुआ है कि राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रासद ने यहां तक दावा कर दिया है कि उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, राजद के साथ आने वाली है. कभी तेजस्वी यादव खुल कर उपेंद्र कुशवाहा को महागठबंधन में ‘स्वागत’ वाला बयान दे डालते हैं।

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कुशवाहा के प्रति राजद नेताओं के ऐसे बयान के पीछे कुछ तर्कपूर्ण आधार भी दिखने लगते हैं जब कुशवाहा के सहयोगी नागमणि खुला ऐलान करते हैं कि ‘कुशवाहों को अपनी जागीर ना समझे भाजपा। कुशवाहा समाज अपने स्वाभिमान की कीमत पर एनडीए का हिस्सा नहीं रह सकता’।

 

जिगजाग मोशन में कुशवाहा

कुशवाहा फिलवक्त समतल रास्ते पर मगर, जिगजाग मोशन में दिख रहे हैं। नतीजा यह है कि सड़के के दायें खड़ी भाजपा का उनपर अविश्वास भी बढ़ता जा रहा है और वह उनसे भयभीत भी है। जबकि बायें खड़ा राजद उनके इंतजार में राल टपाये फिर रहा है.। उपेंद्र कुशवाहा की इस जिगजाग मोशन का ही नतीजा है कि महागठबंधन लोकसभा चुनाव के लिए सीट शेयरिंग के मुद्दे पर  अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंच पा रहा। उधर एनडीए के अंदरखाने में जब सीट शेयरिंग की बात चलती है तो उसके नेता यह मान कर चल रहे हैं कि कुशवाहा कभी भी एनडीए छोड़ने का ऐलान कर सकते हैं. लिहाजा उन्हें माइनस मान कर ही एनडीए सीट शेयरिंग की तैयारी में जुटा है.

उपेंद्र कुशवाहा की राजनीति की सीमायें

ऐसे में सवाल यह है कि आखिर उपेंद्र कुशवाहा चाहते क्या हैं?

उपेंद्र कुशावा की राजनैतिक शैली को जानने वाले जानते हैं कि वह बुनियादी तौर पर सेक्युलर-समाजवादी विचार के नेता हैं। ऐसे में भाजपा से उनका अलायंस नेचुरल नहीं है. सत्ता की राजनीति का अपना डायनामिक्स होता है।कुशवाहा ने 2014 में उसी डायनामिक्स को ध्यान में रखते हुए भाजपा का दामन थामा था.  लेकिन 2014  के हालात ऐसे थे कि कुशवाहा के राजनीति में बने रहने के लिए और कोई विकल्प भी नहीं था। नीतीश की पार्टी और राज्यसभा की सांसदी उन्होंने ठुकरा दी थी. दीगर सेक्युलर पार्टियों से तालमेल के हालात नहीं थे. सत्ता की सियासत ने उन्हें भाजपा के करीब पहुंचा दिया।यही कारण है कि कुशवाहा, भाजपा के साम्प्रदायिक स्टैंड पर, उसके साथ रहने के बावजूद मुखर विरोध दर्ज कराते रहे हैं.

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 पावर पॉलिटिक्स का डायनामिक्स

लेकिन जैसा कि ऊपर कहा गया है कि पावर पॉलिटिक्स का अपना डायनामिक्स होता है. पावर पॉलिटिक्स ने कुशवहा को पिछले साढ़े चार वर्षों में मजबूत बना दिया है. अब वह बड़े सियासी डील की स्थिति में आ चुके हैं. उनकी स्वाभाविक महत्वकांक्षा है कि वह बिहार की राजनीति में बड़ी भूमिका निभायें. लेकिन इस बड़ी भूमिका के लिए फिलहाल न तो महागठबंधन में स्पेस है और न ही एनडीए में. ऐसे में कम से कम वह बड़ी सियासी डील के लिए सियासी डोरे डालने का प्रयोग कर रहे हैं.किसी भी स्पेकुलेशन से परे  देखना होगा कि उनका अगला कदम क्या होगा.

 

 

 

By Editor


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