एनडीए के दो सहयोगी- रामविलास पासवान व उपेंद्र कुशवाहा, भाजपा पर चाबुक भी बरसा रहे हैं और ताल ठोक कर यह भी कह रहे हैं कि वे भाजपा के साथ हैं, और रहेंगे. उधर राजद नेता घोषित कर रहे हैं कि कुशवाहा उनके साथ आ रहे हैं. इस आंख मिचौनी के क्या हैं मायने?

[author image=”https://naukarshahi.com/wp-content/uploads/2016/06/irshadul.haque_.jpg” ]इर्शादुल हक, एडिटर, नौकरशाही डॉटकॉम, फॉर्मर फेलो इंटरनेशनल फोर्ड फाउंडेशन[/author]

गोरखपुर,फूलपुर व अरिया लोकसभा उप चुनाव में भाजपा कि हार क्या हुई, उसके दो सहयोगी दल एनडीए गठबंधन पर आंखें तरेरने लगे हैं. वे ऐसा तब कर रहे हैं जब एनडीए की एक मजबूत सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी अपने डेढ़ दर्जन सांसदों के साथ भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन से नाता तोड़ चुका है. ऐसे में बिहार से उसके दो मजबूत सहयोगी दल- लोजपा और रालोसपा अपने अपने अंदाज में भाजपा को आंखें दिखा रहे हैं और नसीहत देने में लगे हैं. इन दोनों पार्टियों के इस तेवर से स्वाभाविक है कि आम लोगों में यह ताअस्सुर जा रहा है कि भाजपा से इन दोनों दलों का मोह भंग होता जा रहा है. जबकि दूसरी तरफ राजद के अनेक वरिष्ठ नेता बीच बीच में यह आवाज उठा दे रहे हैं कि रालोसपा यानी उपेंद्र कुशवाहा राजद गठबंधन में आने वाले हैं.

आंखें दिखाने की वजहें

हालांकि कुशवाहा ने अनेक बार मीडिया को सफाई दे दी हैं. यहां तक कि उन्होंने मुझ से बात करते हुए साफ कहा है कि यह अफवाह है. हम एनडीए गठबंधन में हैं और रहेंगे. उधर रामविलास पासवान के बेटे चिराग पासवान के बयान से शुरू हए असमंजस को अब खुद बुजुर्ग पासवना ने तब और बढ़ा दिया जब पटना पहुंचते ही उन्होंने एयरपोर्ट पर भाजपा को नसीहत देने के अंदाज में कह गये कि भाजपा को सबका साथ सबका विकास के नारे को व्यावहारिक रूप में साबित करना होगा. उसे कांग्रेस की तरह इंक्लुसिव राजनित करनी होगी तब ही एनडीए सशक्त हो सकता है. पासवान ने यहां तक कहा कि उपचुनाव में भाजपा की हार चिंता का विषय है. उन्होंने चिराग के उस बयान का समर्थन भी किया और कहा कि चिराग ने सही कहा कि एनडीए को सभी समुदाय और सामाजिक समीकरण को ध्यान में रखने की जरूरत है.

लोजपा व रालोसपा के दोनों नेता जब इस तरह की बात कह रहे हों तो इस बात को सोचना आवश्यक हो जाता है कि पिछले तीन चार सालों में इन नेताओं ने ऐसे बयान देने का कभी साहस क्यों नहीं दिखाया?  अकेले के पूर्ण बहुमत की शक्ति से लबरेज भाजपा के लिए 2-4 सांसद वाले सहयोगियों से ऐसे पीड़ादायक बयान की प्रत्याशा न तो थी और न ही इन सहयोगियों ने ऐसा पहले कभी किया.

लेकिन अब जब 2019 के आगामी लोकसभा चुनाव में ज्यादा समय नहीं बचा है, इन दलों के ऐसे बयान के गहरे निहतार्थ हैं. एक बात स्पष्ट रहनी चाहिए कि इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि समय की गति को पहचानने में ये दोनों नेता माहिर हैं. लिहाजा भविष्य का फैसला लेने के लिए ये दोनों नेता एक खास रणनीति अपना सकते हैं.

भाजपा की हार से नीतीश को भी मिली संजीवनी

चूंकि इन दोनों दलों की भूमिका को भाजपा ने,  एनडीए सरकार और एनडीए संगठन में सीमित करके पहले से ही निरीह बना रखा है. ऐसे में इन नेताओं के लिए भाजपा को आंखे दिखाने का यह उचित समय आ चुका है. 2014 के बाद से भाजपा की एक के बाद एक राज्य में लगातार जीत से जहां वह आत्मविश्वास से परिपूर्ण था वहीं उसके सहयोगी निरीह उसके सारे नखरे उठाने को बेबस थे. लेकिन उपचुनाव में लगातार होती भाजपा की हार ने इन सहयोगी दलों को अपनी अहमियक मनवाने का अवसर दे दिया है. उधर भले ही नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले जदयू ने भी चुनाव हारा हो, पर भाजपा की इस हार से नीतीश कुमार को संजीवनी ही मिला है. नीतीश कुमार ने जब से भाजपा के साथ पुनर्वापसी की है, उनकी हैसियत को भाजपा ने कमजोर से कमोजर सिद्ध करने की हर कोशिश की है. लेकिन इस बार की भाजपा की हार से नीतीश और उनके दल को हार के बावजदू भाजपा के सामने अपने महत्व को पेश करने का अवसर मिल चुका है. पिछले दिनों रामविलास पासवान की नीतीश से मुलाकात को इसी आईने में देखा जा रहा है.

‘राजनीति में कुछ भी अन्होनी नहीं’ के सिद्धांत को कभी दर किनार नहीं किया जा सकता. ऐसे में दोनों संभावनायें हैं- हालात देख कर रालोसपा व लोजपा कुछ भी फैसले ले सकते हैं. और अगर उन्होंने एनडी का साथ 2019 चुनाव से पहले नहीं छोड़ा, तो वे भाजपा पर नकेल कसके अपनी हिस्सेदारी बढ़वाने में जरूर कामयाब होना चाहते हैं.

अल्पसंख्यक वोट फैक्टर

इस पूरे मामले में एक बात और महत्वपूर्ण है; इन दोनों दलों का वोट आधार अल्पसंख्यकों से जुड़ा है. दूसरी तरफ भाजपा लगातार कम्युनिल डिवजन का खेल खेल रही है. इस खेल से भाजपा को तो लाभ मिल जायेगा पर सहयोगियों को इसकी कीमत अदा करनी पड़ेगी. ऐसे में ये दोनों दल चाहेंगे कि भाजपा नियंत्रण में रहे. लेकिन अब आगे के हालात इस बात पर निर्भर करेंगे कि भाजपा सहयोगियों के दबाव में कितना आ पाती है.

 

By Editor