साफ़–साफ़ बोलती हैं ज़फ़र सिद्दीक़ी की ग़ज़लें
साहित्य सम्मेलन में ज़फ़र के ग़ज़ल–संग्रह‘चेहरा बोलता है‘ का हुआ लोकार्पण
गीतो–ग़ज़ल की भी ख़ूब सजी महफ़िल
पटना,१२ मार्च। शायरी के इल्मो–फ़न में माहिर,हिंदी और उर्दू के मशहूर शायर ज़फ़र इक़बाल एक ऐसे शायर हैं जिनकी ग़ज़ले साफ़गोई में यक़ीन करती हैं। इनमें व्याकरण का भी कड़ा अनुशासन देखने को मिलता है। इनकी ग़ज़लों की पंक्तियां कभी भी बंदिशों की लक्ष्मण–रेखा नहीं लांघती। बाल भर भी अपनी जगह से नहीं हिलती पर अपने विचारों से पढ़ने–सुनने वालों को हिला के रख देती है।
चेहरा बोलता है
यह बातें आज, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में,हिन्दी में प्रकाशित,ज़फ़र के तीसरे ग़ज़ल–संग्रह ‘चेहरा बोलता है‘ के लोकार्पण–समारोह और कवि–सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि, उर्दू का होकर भी ज़फ़र हिन्दी के लिए भी अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। तीन–तीन संग्रहों का प्रकाशन इस बात का स्वयं प्रमाण देता है।
पुस्तक का लोकार्पण करते हुए, वरिष्ठ कथा–लेखक जियालाल आर्य ने कहा कि, ज़फ़र साहेब का यह संग्रह हिन्दी साहित्य की समृद्धि में बड़ा योगदान देने में सक्षम है। शायर ने ‘चेहरा बोलता है‘ के माध्यम से यह बताने की कोशिश की है कि,कोई भी लाख पर्दा करे,ख़ुद को छुपा नहीं सकता। चेहरा ख़ुद सब कुछ बता देता है।
समारोह के मुख्यअतिथि तथा वरिष्ठ शायर डा क़ासिम खूर्शीद ने कहा कि, ज़फ़र सिद्दीक़ी के भीतर एक ग़ज़ब की सिद्दत दिखाई देती है। हिन्दी के बड़े शायरों में शुमार होने वाले दुष्यंत और शमशेर की तरह ज़फ़र भी दुनिया के मसायल को अपने आगे रखते है। जो शायरी समाज के मसायल से जुड़ती है, उसे समाजी मुहब्बत भी ख़ूब मिलती है। इनकी शायरी की ख़ूबियों में यह भी शामिल है कि, ये आम–फ़हम भाषा में लिखते हैं और व्यापक पैमाने पर लिखते हैं। इन्होंने अपनी ग़ज़लों से हर जगह अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। यही वजह है कि,ग़ज़ल से वास्ता रखनेवाला हर कोई इन्हें अपने क़रीब पाता है।
उर्दू शायरी खूबसूरत विधा
इसके पूर्व अतिथियों का स्वागत करती हुई सम्मेलन की साहित्यमंत्री डा भूपेन्द्र कलसी ने कहा कि,ग़ज़ल उर्दू शायरी की एक ख़ूबसूरत विधा है, जो पहले कभी इश्क़ और महबूब तक सीमित थी, अब दुनिया के हर एक विषय को साथ लेकर चलती है। सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेंद्र नाथ गुप्त, डा शंकर प्रसाद और परवेज़ आलम ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
इस अवसर पर आयोजित कवि–सम्मेलन में डा शंकर प्रसाद ने ज़फ़र की ग़ज़ल को तर्रनुम से सुनाते हुए कहा कि, “ज़माने में मुकम्मल कोई भी तुझसा नहीं मिलता/ कहीं आँखें नहीं मिलती, कहीं चेहरा नहीं मिलता“। डा क़ासिम ख़ुर्शीद ने अपने ख़याल का इज़हार इस तरह किया कि, “मुझे तुम से कोई गिला भी नहीं है/ और अंदर कोई दूसरा भी नहीं है/मुहब्बत से तुमने किया क़त्ल ऐसे मेरा दिल तो अबके दुखा भी नहीं है“।
वरिष्ठ शायर आरपी घायल का कहना था कि, “ग़म मिला तो मैं उसी से दिल को बहलाता रहा/ एक चादर की तरह उस ग़म को तहियाता रहा”। कवयित्री आराधना प्रसाद ने कहा कि,”चाँद का तो रंग फीका पड़ गया/ख़ुशनुमा पीतल की थाली हो गई” । समीर परिमल का कहना था कि, “बड़ा जब से घराना हो गया है/ ख़फ़ा सारा ज़माना हो गया है/दिवाली ईद पर भाई से मिलना/ सियासत का निशाना हो गया है।“
शायर शकील सासारामी, डा मधुरेश नारायण, बच्चा ठाकुर, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, राज कुमार प्रेमी, जय प्रकाश पुजारी, शुभचंद्र सिन्हा, डा विनय कुमार विष्णुपुरी, लता प्रासर, शमा कौसर‘शमा‘, मोईन गिरिडीहवी, कुमार अनुपम, राज कुमार प्रेमी, शुभचंद्र सिन्हा, डा शमा नासमीन नाज़ां , नंदिनी प्रनय , सिद्धेश्वर,प्रभात धवन, श्वेता मिनी, उमा शंकर सिंह,सच्चिदानंद सिंह ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद–ज्ञापन डा नागेश्वर प्रसाद यादव ने किया।