साहित्य सम्मेलन में ‘हिन्दी के उन्नयन में महात्मा गांधी के अवदान‘ विषय पर आयोजित हुई संगोष्ठी
पटना,२ अक्टूबर । ‘अंग्रेज़ भले कुछ दिन और रह जाएँ, पर‘अंग्रेज़ी‘ को अविलंब भारत से विदा किया जाना चाहिए। भारत की उन्नति और उसकी संस्कृति की रक्षा में यह भाषा सबसे बड़ी बाधा है। समग्र भारत वर्ष को केवल भारतीय भाषा हीं एक सूत्र में पिरो सकती है।‘हिन्दी‘ में वह सारी शक्तियाँ और सामर्थ्य है, जिससे भारत एक हो सकता है और उन्नति कर सकता है।‘ ये विचार भाषा और ‘हिन्दी‘ के संबंध में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के थे, आज संपूर्ण राष्ट्र जिनकी १५०वीं जयंती मना रहा है। देश के स्वतंत्र हुए ७० वर्ष बीत गए। अंग्रेज़ कब के चले गए। पर अंग्रेज़ी भारत से नहीं गई। बल्कि देश को दासता से मुक्त कराने वाली भाषा ‘हिन्दी‘,जिसे भारत की संविधान सभा ने, देश की राजकीय भाषा के रूप में स्वीकृति दी थी, आज तक अंग्रेज़ी की दासी बनी हुई है। स्वतंत्र भारत की माँ की भाषा अभी भी अंग्रेज़ी कारावास में है,और भारत के सपूत निर्लज्जतापूर्वक अपनी माँ को कारावास में देखते हुए,अपने अंग्रेज़ी–ज्ञान पर गर्व करते हैं।
यह बातें आज बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, ‘हिन्दी के उन्नयन में महात्मा गांधी के अवदान‘ विषय पर आयोजित संगोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए, सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कही। डा सुलभ ने कहा कि विश्व का वह महान पुरुष चाहता था कि,संपूर्ण और अखण्डित भारत वर्ष में हिन्दी का विस्तार हो और यह संपूर्ण भारत वर्ष की भाषा बने। भारत के अनेक विद्वानों की तरह उनकी भी यही राय थी कि, संपूर्ण भारत वर्ष में, भारत की इसी भाषा को स्वीकार्यता मिल सकती है। पूरा देश इसे अपनी राष्ट्रीय भाषा के रूप में श्रद्धापूर्वक स्वीकार करेगा। वर्ष १९१० में जब अखिल भारत वर्षीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना महामना पं मदन मोहन मालवीय जी की अध्यक्षता में हुई, गांधी जी ने अपनी शुभेच्छाएं भेजी और पूरा समर्थन दिया। सम्मेलन के —-वें अधिवेशन और —वें अधिवेशन की अध्यक्षता भी उन्होंने की। उन्होंने अनेकों साहित्यकारों को हिन्दी में लेखन के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया। उनके निर्देश पर देश रत्न डा राजेंद्र प्रसाद, बाबू गंगा शरण सिंह जैसे नेताओं ने भी हिन्दी के प्रचार के लिए, दक्षिण भारत की लंबी–लंबी यात्राएँ की। गांधी जी बोलचाल की सरल हिन्दी के पक्षधर थे। उनका विचार था कि सरल शब्दों के प्रयोग से इसे शीघ्रता से लोकप्रिय बनाया जा सकता है।
संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए, पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री और सांसद डा सी पी ठाकुर ने कहा कि, गांधी जी भारतीयता और भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए हिन्दी को आवश्यक मानते थे। वे यह जानते थे कि, भारत की भाषा से हीं देश को स्वतंत्रता मिल सकती है और भारत की भाषा से हीं देश की उन्नति हो सकती है। अपनी भाषा के अभाव में देश गुंगा हो जाता है।
इसके पूर्व अतिथियों का स्वागत और विषय प्रवेश करते हुए,सम्मेलन के कार्यकारी प्रधानमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने कहा कि हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाए जाने में महात्मा गांधी की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही। देश की राज काज की भाषा भारत की कौन सी भाषा हो? इस प्रश्न के उत्तर में कई बिंदुओं पर विचार किया गया, जिनमें संपूर्ण राष्ट्र द्वारा उसकी ग्राह्यता, सरलता से सीखी और समझी जा सकने वाली,अधिकांश क्षेत्रों में बोली जानेवाली भाषा होना सम्मिलित था।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष डा शंकर प्रसाद ने कहा कि, आकाशवाणी ने गांधीजी की आत्म–कथा का उनके हीं स्वर में रेकार्डिंग कराया था, जो हिन्दी में था और उसका प्रसारण अनेक किश्तों में किया गया।
डा मधु वर्मा, डा वासुकी नाथ झा, बच्चा ठाकुर,जनार्दन पाटिल, डा सुधा सिन्हा, प्रो उमेशचंद्र शुक्ला, राज कमार प्रेमी, जयप्रकाश पुजारी, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, डा मनोज गोवर्द्धनपुरी, शुभचंद्र सिन्हा, आनंद किशोर मिश्र, डा आर प्रवेश,शशि भूषण कुमार,विभारानी श्रीवास्तव,प्रभात धवन, आशा अग्रवाल, नेहाल कुमार सिंह ‘निर्मल‘,अर्जुन प्रसाद सिंह,साहू विजय सिंह,ज़फ़र अहसन, मूलचन्द्र,ने भी अपने विचार व्यक्त किए। मंच का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र तथा धन्यवाद–ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।
आरंभ में महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री के चित्रों पर पुष्पांजलि देकर, दोनों महान विभूतियों के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गई।