पटना, संस्कृत और हिन्दी के यशस्वी विद्वान तथा कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा के पूर्व कुलपति डा ब्रह्मचारी सुरेन्द्र कुमार नही रहें। 83 वर्ष की अवस्था में, रविवार प्रातः साढे सात बजे रुबन मेमोरियल अस्पताल में उन्होंने अंतिम साँस ली।
दूसरे पहर आर्य-समाज पद्धति से उनके पार्थिव शरीर का अग्नि-संस्कार, बांस घाट स्थित विद्युत शव-दाह-गृह में कर दिया गया। उनके एक मात्र पुत्र श्रीधर कुमार ने उन्हें मुखाग्नि दी।
उनके निधन की सूचना मिलते हीं साहित्य-समाज में शोक की लहर दौड़ गयी। साहित्य सम्मेलन में आज संध्या एक शोक-गोष्ठी भी संपन्न हुई, जिसकी अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि उनके निधन से संस्कृत और हिन्दी, दोनों हीं, भाषाओं और साहित्य का एक बड़ा नक्षत्र डूब गया है। उन्होंने जीवन पर्यन्त देव-भाषा और राष्ट्र-भाषा की उन्नति के लिए अमूल्य अवदान दिया।
वे वर्ष 1983 से 1985 तक कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। 1999 में उन्हें राष्ट्रपति-पुरस्कार से भी अलंकृत किया गया। वे केन्द्रीय संस्कृत संगठन, भारत सरकार के भी बड़े काल तक सदस्य रहे। साहित्य सम्मेलन से वे सक्रियता और आत्मीयता से जुड़े हुए थे। उनके अवदानों को कभी भुलाया नही जा सकेगा। डा सुलभ ने कहा कि उनके निधन से केवल भाषा और साहित्य तथा साहित्य समाज को हीं नहीं, अपितु उनकी व्यक्तिगत क्षति भी हुई है।
अपने शोकोद्गार में साहित्य सम्मेलन के साहित्यमंत्री डा शिववंश पाण्डेय ने उन्हें अत्यंत विनम्र और विद्वता का आलोक पुरुष बताया। उन्होंने कहा कि ब्रह्मचारी जी संस्कृत के अधिकारी विद्वान होकर भी आधुनिक चिंतन रखने वाले विद्वान थे। वे वास्तव में एक महान चिंतक और विचारक थे। आर्य-समाज और उसकी संस्कृति में उनकी बड़ी निष्ठा थी।
इस अवसर पर सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेन्द्र नाथ गुप्त, पं शिवदत्त मिश्र, डा राम शोbभित प्रसाद सिंह, योगेन्द्र प्रसाद मिश्र, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, शंकर शरण मधुकर, प्रो सुशील कुमार झा, नेहाल कुमार सिंह ‘निर्मल’ समेत अनेक साहित्यकारों ने भी अपने शोकोद्गार प्रकट किए। सभा के अंत में दो मिनट मौन रखकर दिवंगत आत्मा की शांति और सद्गति हेतु ईश्वर से प्राथना की गयी। एक शोक-प्रस्ताव भी पारित किया गया, जिसकी प्रति उनके पुत्र श्रीधर कुमार जी को प्रेषित की गयी।