संस्कृत से दूर होकर, भारत केवल अपनी महान संस्कृति से हीं दूर नही हुआ बल्कि ज्ञान और विज्ञान की विराट संपदा से भी विस्थापित हो गया। वेद-उपनिषद आदि जिन संस्कृत-साहित्य पर शोधकर अमेरिका सहित पश्चिम के राष्ट्रों ने बड़ी-बड़ी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ प्राप्त कर ली और विकास के दौड़ में हमसे बहुत आगे निकल गये, उन साहित्य को भारत में आज न तो पढने वाला है और न पढानेवाला शेष बचा है। वस्तुतः संस्कृत का त्याग कर भारत ने अपना नाश कर लिया।
इस भूल को आज भी सुधारा जा सकता है। संस्कृत आज भी प्रासंगिक है। संस्कृत के माध्यम से हीं हम अपना प्राचीन और खोया हुआ गौरव पुनः प्राप्त कर सकते हैं।
यह बांतें आज यहां, संस्कृत विश्वविद्यालय केपूर्व कुलपति तथा राष्ट्रपति से अनेक बार सम्मानित विद्वान आचार्य आद्याचरण झा की जयंती पर, बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन में, “संस्कृत-भाषा की प्रासंगिकता” विषय पर आयोजित विचार-गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने की। डा सुलभ ने कहा यह कितने आश्चर्य और पीड़ा की बात है कि, संसार का सबसे बड़ा संस्कृत-पुस्तकालय भारत में नहीं जर्मनी में है। उन्होंने संस्कृत की सेवा के लिए आचार्य झा के अवदानों को आदरपूर्वक स्मरण करते हुए, उनके प्रति भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित की। डा सुलभ ने कहा कि आद्या बाबू संस्कृत के पराभव से अत्यंत पीड़ित और इसके पुनरुत्थान के लिए जीवन-पर्यन्त जूझते रहे किंतु देश और प्रदेश की सरकारें न जाने किस हीन-ग्रंथी से ग्रसित हैं कि उन्हें यह विषय हानीकारक प्रतीत होता है।
सर्वे संतु निरामयाः
समारोह का उद्घाटन करते हुए पटना विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा एस एन पी सिन्हा ने कहा कि, संस्कृत साहित्य में संसार की एकता और संपूर्ण विश्व को एक सूत्र में बाँधने की असीम उर्जा है। हमें इसी से ‘वसुधैव कुटुंबकम’ तथा “सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः” का भाव और ज्ञान प्राप्त होता है।
गोष्ठी के मुख्यवक्ता और प्रसिद्ध समालोचक डा शिववंश पाण्डेय ने कहा कि संस्कृत के लिए जीने-मरने वाले यदि दो-चार नाम गिनाने हों तो आद्या बाबू का नाम उनमें सबसे आदर के साथ लिया जायेगा। उन्होंने संस्कृत की अपार शक्ति की चर्चा करते हुए बताया कि, संस्कृत में 1700 ध्हातुएं, 70 प्रत्यय और 80 उपसर्ग है, जिनके योग से जो शब्द बनते हैं, उनकी संख्या 27 लाख 20 हज़ार होती है। यदि दो शब्दों से बने सामासिक शब्दों को जोड़ेअते हैं तो उनकी संख्या लगभग 769 करोड़ हो जाती है।
गौरव शिखर
आरंभ में अतिथियों का स्वागत करते हुए सम्मेलन के प्रधानमंत्री आचार्य श्रीरंजन सूरिदेव ने आद्या बाबू को ‘संस्कृत का गौरव-शिखर’ बताते हुए कहा कि वे एक उदार शिक्षक किंतु कठोर परीक्षक थे। वे परीक्षाओं में कड़ाई के पक्षधर थे। परिक्षा केन्द्र पर उनके आने की सूचना से हीं परीक्षार्थी इतने भयाक्रांत हो जाते थे कि, पुस्तिका के ऊपर से ध्यान हटाने का साहस नही करते थे। संस्कृत के लिए जो वलिदान उन्होंने दिया वह अकथनीय है। संस्कृत की अपार शक्ति का ज्ञान उन्हें था और वे चाहते थे कि भारत अपने ज्ञान के उस खजाने को यथा शीघ्र प्राप्त करे।
इस अवसर पर द्वैमासिक पत्रिका ‘कल्चर-टुडे’ के साहित्य-सम्मेलन विशेषांक का लोकार्पण भी किया गया। वक्ताओं ने पत्रिका के प्रधान संपादक कुमार अनुपम तथा सलाहकार संपादक डा शंकर प्रसाद के प्रति इस विशेष कार्य के लिए बधाई दी।
सम्मेलन के उपाध्यक्ष नृपेन्द्र नाथ गुप्त, पं शिवदत्त मिश्र, डा शंकर प्रसाद, कुमार अनुपम, बच्चा ठाकुर, डा विनोद कुमार मंगलम, डा मेहता नगेन्द्र सिंह, रविघोष, आचार्य आनंद किशोर शास्त्री, राज कुमार प्रेमी, बांके बिहारि साव, शंकर शरण मधुकर, नम्रता कुमारी, नीरव समदर्शी, डा मनोज कुमार, बंधु शेखर पाण्डेय, कुमारी मेनका ने भी अपने विचार व्यक्त किये। सभा का संचालन योगेन्द्र प्रसाद मिश्र ने तथा धन्यवाद ज्ञापन कृष्ण रंजन सिंह ने किया।